SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ३ / प्र० ३ ग्रहण रागद्वेष का फल है । और जहाँ इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष है, वहाँ समभावरूप ध्यान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? ज्ञानार्णवकार कहते हैं २४ / १३ ॥ साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वदर्शिभिः । तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः ॥ अनुवाद - " सर्वज्ञ ने साम्य को ही परमध्यान कहा है। आचारों का वर्णन है, उनका उद्देश्य साम्य को ही अभिव्यक्त करना है । " शास्त्रों में जो अन्य आचार्य कुन्दकुन्द ने इष्टानिष्ट पदार्थों में समभाव रखनेवाले को ही शुद्धोपयोगी अर्थात् वीतरागधर्मध्यानी या शुक्लध्यानी कहा है- "समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगोत्ति ।" (प्र.सा./१/१४) । योगी सदा समभाव को ही प्राप्त करने की भावना करता है । यथा दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे योगे वियोगे निराकृताशेषममत्वबुद्धेः समं मनो मेऽस्तु Jain Education International अभिप्राय यह कि जहाँ शीत, उष्ण, दंशमशक आदि अनिष्ट पदार्थों से द्वेष नहीं होता (अनिष्टवियोग की इच्छा नहीं होती) और वस्त्रादि इष्ट पदार्थों से राग नहीं होता (इष्टसंयोग की इच्छा नहीं होती) वहाँ ही समभावरूप ध्यान की सिद्धि होती है । जहाँ शीतादिपरीषहों से द्वेष होता है (अनिष्टवियोग की इच्छा होती है) और उन्हें दूर करनेवाले वस्त्रादि पदार्थों से राग होता है ( इष्टसंयोग की इच्छा होती है) वहाँ समभाव न होने से ध्यान की सिद्धि असंभव है। ४ भवने वने वा । सदापि नाथ ॥ ३ ॥ भावनाद्वात्रिंशतिका । वस्त्रपात्रादिपरिग्रह मूर्च्छा का फल चूँकि वस्त्रपात्रादि कथञ्चित् भी संयम के साधन नहीं हैं, वे परीषहपीड़ा-निवारण या देहसुख के लिए ही ग्रहण किये जाते हैं, अतः परीषहपीड़ा निवारण या देहसुख की इच्छा मूर्च्छा है और वस्त्रपात्रादि का ग्रहण मूर्च्छा का फल । अतः दोनों ही परिग्रह हैं । किन्तु देह और आहार एकान्ततः देहसुख के साधन नहीं हैं, संयम के भी साधन हैं। देह संयम का साक्षात् साधन है और आहार देहधारण या प्राणधारण का साधन होने से संयम का परम्परया साधन है। चूँकि देह इन्द्रियसुख का भी आधार है और आहार क्षुधातृषापरीषहजन्य पीड़ा के निवारण द्वारा देहसुख का भी साधन है, अतः जब इन प्रयोजनों से देह को कायम रखने की और आहार ग्रहण करने की इच्छा की जाती है, तब वह इच्छा मूर्च्छा होती है और देह का संग तथा आहार का ग्रहण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy