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अ०३/प्र०३
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २३५ में कोई सन्देह नहीं है कि वस्त्रधारण करते हुए यदि साधारण स्त्रीपुरुष मुक्त हो सकते हैं, तो तीर्थंकर और जिनकल्पिक भी हो सकते हैं।
फिर भी तीर्थंकरों ने सवस्त्रमार्ग ग्रहण नहीं किया। उन्होंने वस्त्रादि का परित्याग कर नग्नत्व को अंगीकार किया और मुक्त्यर्थियों को भी अचेलमार्ग का ही उपदेश दिया, जैसा कि उत्तराध्ययन और पञ्चाशक की पूर्वोद्धृत गाथाओं से विदित होता है। इससे स्पष्ट है कि तीर्थंकर सवस्त्रमुक्ति संभव नहीं मानते थे, इसके विपरीत वस्त्रपात्रादिपरिग्रह को संयम, ध्यान आदि में बाधक होने से मोक्ष में बाधक मानते थे। और यह बात तो साधारणबुद्धि में भी आ सकती है कि जब वस्त्रपात्रादि-परिग्रह तीर्थंकरों के लिए मोक्ष में बाधक हो सकता है, तब उन जैसी योग्यता न रखनेवाले साधारण स्त्रीपुरुषों के लिए तो और भी अधिक बाधक होगा। यदि वस्त्रादिपरिग्रह मोक्षसाधक होता, तो तीर्थंकर उसे ही अंगीकार करते, क्योंकि श्वेताम्बराचार्यों के अनुसार तीर्थंकरों को यह उपदेश भी देना आवश्यक होता है कि मोक्षमार्ग सवस्त्र ही है, निर्वस्त्र नहीं, जिसके लिए उन्हें एक देवदूष्य कन्धे पर रखकर प्रव्रजित होना पड़ता है। पर तीर्थंकरों ने वस्त्रपात्रादि ग्रहण नहीं किये, बल्कि जो वस्त्रादि बाल्यकाल से धारण करते आ रहे थे, उनका परित्याग कर दिया और नग्न हो गये। इससे सिद्ध है कि स्थविरकल्प (सचेलधर्म) के मोक्षमार्ग होने का उपदेश तीर्थंकरों ने नहीं दिया, अपितु वह आगे चलकर कुछ देहसुखाकांक्षी लोगों के द्वारा कल्पित किया गया है।
इससे यह निर्णय आसानी से हो जाता है कि वस्त्रपात्रादि-परिग्रह मोक्ष का साधक नहीं है, अपितु मोक्ष में बाधक है, अतः वह ग्रन्थ ही है, अग्रन्थ नहीं। अत एव श्वेताम्बराचार्यों का यह कथन अयुक्त सिद्ध हो जाता है कि 'वस्त्रपात्रादि संयम और लज्जा के साधन होने से परिग्रह नहीं है, अपितु उनमें मूर्छा होना परिग्रह है अथवा वे संयम के साधन हैं, अत एव ग्रन्थ नहीं हैं, अग्रन्थ ही हैं।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शय्यंभव (४५२ ई० पू०) से लेकर जिनभद्रगणी-क्षमाश्रमण (७वीं शती ई०) तक सभी आचार्यों ने अपने नवीन मत को पुष्ट करने के लिए दिगम्बरजैन-सिद्धान्तों का खण्डन किया है, जिससे सिद्ध होता है कि दिगम्बरमत उनके समय में प्रचलित था, अतः वह उन आचार्यों से पूर्ववर्ती है।
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