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________________ अ० ३ / प्र० ३ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २१७ पाणिपात्र में आहारदान करते हैं। अतः इस प्रयोजन से भी मुनियों को पात्र रखने की आवश्यकता नहीं होती। फिर भी यदि पात्र रखा जाता है, तो उसका प्रयोजन यत्नाचार के कष्ट से बचना ही होता है, अतः वह देहसुख का साधन है, संयम का नहीं । २ संयमध्यानादि की सिद्धि परीषहजय से वस्त्रपरिभोग के समर्थन में यह तर्क दिया गया है कि शीतादिपरीषह उत्पन्न होने पर उससे आर्त्तध्यान का निवारण होता है, जिससे अग्निप्रज्वलन की आवश्यकता न रहने से अहिंसा - संयम का पालन होता है तथा ध्यान और अध्ययन की साधना निर्विघ्न सम्पन्न होती है । ६° जैसे क्षुधादिपीड़ित शरीर संयम का साधक नहीं होता, वैसे ही शीत, आतप दंशमशक आदि से पीड़ित शरीर भी संयम का साधक नहीं है । अतः जैसे क्षुधादि की पीड़ा का निवारण करने के लिए आहार ग्रहण किया जाता है, वैसे ही शीतादि की पीड़ा का निरोध करने के लिए वस्त्रग्रहण आवश्यक है । ६१ यह तर्क अत्यन्त अनर्थकर है। इससे स्त्रीसेवन और अनंगक्रीड़ा का भी औचित्य सिद्ध होता है । यदि शीतादि- पीड़ित शरीर संयम, ध्यान, अध्ययन आदि में बाधक है, अत एव वस्त्र के उपयोग से शीतादि की पीड़ा का निवारण आवश्यक है, तो काम से पीड़ित शरीर भी संयम, ध्यान, अध्ययन आदि में बाधक होता है और थोड़ा नहीं, सर्वाधिक बाधक होता है, अतः कामपीड़ा के निवारण के लिए भी स्त्रीसेवन या अनंगक्रीडा की आवश्यकता सिद्ध होती है। और स्त्रीदर्शन से साधु के कामविकारग्रस्त हो जाने की संभावना प्रकट की ही गयी है, जिसे छिपाने के लिए वस्त्रग्रहण प्रधानतया आवश्यक बतलाया गया है । वस्त्र द्वारा कामविकार को छिपाने से वह शान्त नहीं ६०. “सौत्रिकौर्णिककल्पैस्तावत् शीतार्तानां त्राणं साधूनामार्तध्यानापहरणं क्रियते । --- कल्पाः प्रावृताः सन्तो निर्विघ्नं स्वाध्यायध्यानसाधनं कुर्वन्ति शीतार्त्यपहरणादिति । " हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५७५-७९ । ६१. क—“यथा तवेष्टसंयमहेतुशरीरस्य स्थितिहेतवे अशनादिकं गृह्यते तर्हि तादृक्शरीरपरिपालननिमित्तेन वस्त्रादिना किमपराद्धम् ? तस्माद्यथा क्षुधादिपीडितं शरीरं न संयमहेतु - स्तथा शीतातपदंशमश - कादिपीडितमपीति बोध्यम् ।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/२९ / पृ. ९१ । ख–“वस्त्रैः शीतोष्णकालादिषु शीतातपदंशमशकैर्या पीडा तया रहितस्य सद्ध्यानं धर्मशुक्ललक्षणं स्याद् । वस्त्राभावे च क्षुधाद्यनाकुलस्यापि दुर्ध्यानम् अग्नितृणादिसेवाभिप्रायेण दुर्ध्यानं, तत्सेवने चासंयमः स्यात् । " प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति १/२ /३० / पृ. ९१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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