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________________ २१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०३ होकर मानसिक कामसेवन का अवसर मिल जाता है। इसलिए वह संयम का साधक न होकर असंयम की उत्पत्ति में सहायक होता है। भट्ट अकलंक देव ने कहा है कि जो कामविकारजन्य अंगविकृति को छिपाने के लिए कौपीन, फलक या चीवर धारण करते हैं, उनके केवल अंग का संवरण होता है, कर्मों का नहीं।५९ अर्थात् वस्त्रधारण मानसिक कामविकार के निरोध में असमर्थ होने के कारण तज्जन्य अशुभ कर्म के संवर में समर्थ नहीं है। अतः वस्त्रधारण संयम का साधक नहीं है, अपितु विघातक है। जो मुनि होते हुए कामविकार से ग्रस्त हो जाते हैं, उन्हें वस्त्रग्रहण कर उसे छिपाने की आवश्यकता नहीं है, अपितु मुनि पद त्यागने की आवश्यकता है। तथा जो यह कहा गया है कि शीतादिपरीषह से पीड़ित साधु समितियों का पालन नहीं कर सकता, वह भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि शीतादिपरीषह सहन करना साधु का धर्म है, और उसमें अभ्यस्त साधु समितियों का पालन सम्यग्रूपेण कर सकता है। यह पूर्व में दर्शाया जा चुका है कि हीनसंहननवाला साधु भी परीषहसहन करने में समर्थ होता है। फिर भी यदि यह माना जाय कि वर्तमान में उत्तम संहनन न होने से परीषहजय संभव नहीं है, अतः वस्त्रपरिभोम अनिवार्य है, तो यह भी मानना होगा कि देहसुख के लिए वस्त्ररूप इन्द्रियविषय का परिभोग असंयम है, अतः उससे कर्मबन्ध भी अनिवार्य है। परिणामतः वस्त्रपरिग्रह मोक्ष का मार्ग नहीं है, अपितु संसार का ही मार्ग है। इसलिए जो परीषह सहने में असमर्थ हैं, उन्हें श्रावकधर्म का पालन करते हुए उत्तमसंहनन पाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ___ इस तरह सिद्ध है कि वस्त्र संयम के साधक नहीं हैं, अपितु उपघातक हैं, अतः यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है कि संयमसाधक होने से वस्त्रधारण परिग्रह नहीं है। भिक्षापात्र भी संयम के लिए आवश्यक नहीं है, क्योंकि सुरचित पाणिपात्र में भी थोड़ा-थोड़ा दुग्धादि तरल पदार्थ ग्रहण करते हुए यत्नाचार पूर्वक सेवन करने से दुग्धादि की बूंदें भूमि पर नहीं गिर पातीं। थोड़ी बहुत गिरती भी हैं, तो मुनि के आहार-स्थान में श्रावक के द्वारा नीचे रखे गये वस्त्र से ढंके हुए चौड़े मुँहवाले वर्तन में गिरती हैं, जिससे भूमिगत सूक्ष्म जीवों के घात का अवकाश नहीं होता। तथा सुरचित पाणिपात्र में दुग्धादि द्रव पदार्थ परिमित मात्रा में ग्रहण किया जाता है, जिससे उसके स्रवित होने की संभावना नहीं रहती, और उसका अच्छी तरह निरीक्षण करना संभव होता है, इस तरह जीवघात के लिए स्थान नहीं रहता। तथा रुग्ण साधुओं को आहारदान करने हेतु अन्य मुनि श्रावकों को संकेत कर देते हैं, जिससे वे स्वयं मुनि की वसतिका में आहार लेकर उपस्थित हो जाते हैं और मुनि को उनके ही ५९. "इतरे पुनर्मनोविक्रियां निरोद्धमसमस्तित्पूर्विकाङ्गविकृतिं निगूहितकामाः कौपीनफलकची वराद्यावरणमातिष्ठन्ते अङ्गसंवरणार्थमेव तन्न कर्मसंवरणकारणम्।" तत्त्वार्थराजवार्तिक /९/९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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