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अ०३ / प्र०३
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २१५ पर अग्निकाय जीवों की विराधना होती है। वस्त्रों को शोधकर धोना चाहिए। शोधन करने के बाद भी वस्त्रों में कुछ षट्पदिकाएँ रह जाती हैं, जिनका धोते समय मर्दन हो जाता है। फिर भी यदि जीवित बच जाती हैं, तो सूर्य के ताप से मर जाती हैं। अतः उनकी रक्षा के लिए वस्त्रों को छाया में सुखाना चाहिए। छाया या धूप में सूखने के लिए डाले गये वस्त्रों को निरन्तर देखते रहना चाहिये, ताकि चोर न ले जाएँ। वस्त्र धोने में इतनी सावधानी बरतने के बाद भी वायुकायिकादि जीवों की विराधनारूप अथवा घु-घातरूप असंयम भी होता ही है। उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त किया जाता है। (वही / गा. ३४)।
___ इस तरह श्वेताम्बरीय ग्रन्थों से भी सिद्ध है कि वस्त्र असंयम के कारण हैं। उनके पहनने-ओढ़ने, धोने-सुखाने से त्रस और स्थावर जीवों का घात होता है और चोरी का भी भय रहता है. अतः अहिंसा और अपरिग्रह महाव्रतों का घातक होने से वस्त्रपरिभोग संयम का साधन नहीं, अपितु असंयम का साधन है।
दशवैकालिकसूत्र में पात्र को संयम का साधक कहा गया है, वस्त्र को नहीं। वस्त्र को केवल लज्जा का रक्षक बतलाया गया है। यथा
जंपि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं।
तंपि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ . इसकी व्याख्या करते हुए हरिभद्र सूरि कहते हैं-"संयम के लिए पात्रादि ग्रहण किये जाते हैं, क्योंकि उनके बिना संयम का पालन संभव नहीं है। और लज्जा की रक्षा के लिए वस्त्र ग्रहण किया जाता है, क्योंकि उसके बिना स्त्रियों की उपस्थिति में विशिष्ट श्रुतपरिणति आदि से रहित साधु में निर्लज्जता की उत्पत्ति हो सकती है।"५६ निर्लज्जता' की उत्पत्ति का अर्थ है स्त्रियों को देखकर कामविकार उत्पन्न होने पर लिंगोत्थान हो जाना। और लज्जा का अर्थ है वस्त्र द्वारा उसे छिपाना। इस प्रकार दशवैकालिक के अनुसार वस्त्र संयम के उपकारी नहीं है। किन्तु हरिभद्रसूरि ने लज्जा को ही संयम घोषित करके वस्त्र को भी संयम का साधक सिद्ध कर दिया,८ जो युक्तिसंगत नहीं है। वस्त्र कामविकार को छिपाता है, रोकता नहीं। कामविकार को छिपाकर वह साधु को निर्लज्जता से निर्भय बना देता है, जिससे साधु को निःशंक
५६. "संयमलजार्थमिति' संयमार्थं पात्रादि, तद्व्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयम
पालनाभावात्। लज्जार्थं वस्त्रं, तद्व्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्ज
तोपपत्तेः।" हारिभद्रीयवृत्ति / दशवैकालिकसूत्र ६/१९ । ५७. हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५७५-७९ । ५८. “अथवा संयम एव लज्जा तदर्थं सर्वमेतद् वस्त्रादि धारयन्ति।" हारि.वृत्ति / दश.वै.सू./६/ १९ ।
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