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________________ २१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०३ होने पर महान् असंयम होगा। युक्तिसंगत इसलिए नहीं है कि ठंड की पीड़ा मिटाने के लिए अग्नि के ताप का भी उपभोग इन्द्रियविषय का उपभोग है, जो इन्द्रियनिग्रह के विरुद्ध है, असंयम है। अतः संयम की सिद्धि के लिए अग्नि के ताप का सेवन भी निषिद्ध है। फलस्वरूप संयमी साधु वस्त्रों के अभाव में अग्नि के ताप का भी उपभोग नहीं कर सकता, जिससे अचेलावस्था में जीवहिंसारूप असंयम की आशंका के लिए स्थान नहीं है। यदि करता है, तो मुनिधर्म की मर्यादा का उल्लंघन करने से मुनि ही नहीं रहता। अग्नि-तापोपभोग-रूप असंयम से बचने के लिए वस्त्रादिउपभोगरूप असंयम की अनुमति तो मोक्षमार्ग में संभव ही नहीं है, क्योंकि दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं। और जैसे अग्नितापसेवन के लिए प्रज्वलित की गई अग्नि हिंसा का कारण है, वैसे ही वस्त्रधारण भी हिंसा का कारण है। 'भगवती-आराधना' में कहा गया है "वस्त्रादि-परिग्रह में नाना प्रकार के सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। बाहर से भी आकर लूं, चींटी, खटमल बगैरह बस जाते हैं।" (भ.आ./गा.' चेलादीया'११५२)। ___ "वस्त्रादि-परिग्रह के ग्रहण करने, रखने, संस्कार करने, बाहर ले जाने, बन्धन खोलने, फाड़ने, झाड़ने, छेदने, बाँधने, ढाँकने, सुखाने, धोने, मलने आदि से जीवों का घात होता है।" (भ.आ./गा. 'आदाणे णिक्खेवे' तथा 'छेदणबंधण'।११५३-५४)। "यदि वस्त्रादि-परिग्रह से जन्तुओं को अलग किया जाय, तब भी वे ही दोष लगते हैं, क्योंकि उन जन्तुओं को दूर करने पर उनका योनिस्थान (उत्पत्तिस्थान) छूट जाता है और इससे उनका मरण हो जाता है।" (भ.आ./ गा. 'जदि वि' ११५५)। श्वेताम्बरीय ग्रन्थ पिण्डनियुक्ति में भी वस्त्रों के उपयोग को हिंसा का कारण बतलाया गया है। कहा गया है कि चीवर धोने में जीवों की हिंसा होती है, अतः वर्षाकाल के पहले ही धो लेना चाहिए। वर्षाकाल के पहले न धोने पर भी अनेक दोष होते हैं। उनमें मैल जमा हो जाता है और वर्षाकाल में जब शीतल कणों का स्पर्श होता है, तब मैल के गीले होने से उसमें 'पनक' नाम के वनस्पति प्रचुररूप से उत्पन्न हो जाते हैं, जिनका घात होने से हिंसा होती है। (मलयगिरिवृत्ति/पिण्डनियुक्ति । गा. २३,२५)। आगे कहा गया है कि पहनने, ओढ़ने और बिछाने के वस्त्रों में षट्पदिकाएँ (J) उत्पन्न हो जाती हैं। उन्हें यत्न से दूसरे वस्त्र में संक्रमित करने के बाद ही वस्त्र धोने चाहिए। (वही / गा.२८)। वस्त्रों को पछाड़कर या कूटकर नहीं धोना चाहिए। धोकर अग्नि के ताप में नहीं सुखाना चाहिये, अन्यथा अग्नि में जल की बूंदे गिरने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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