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________________ अ०३/प्र०३ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २१३ सार यह कि देहदुःख की निवृत्ति और देहसुख की प्राप्ति के लिए वस्त्रादि परद्रव्य ग्रहण किये जाते हैं, अतः वस्त्रादिद्रव्य देहसुख के साधन हैं, संयम के नहीं। संयम की साधना तो वस्त्रादि परद्रव्य के उपभोग की निवृत्ति से होती है। इस प्रकार वस्त्रादि-परिग्रह का उपभोग इन्द्रिय-असंयम का कारण है और उसके उपार्जन तथा रक्षण के लिए मनुष्य विभिन्न प्रकार के हिंसादि पाप करता है, इसलिए प्राणि-असंयम का भी कारण है। दशधर्मों के अन्तर्गत संयमधर्म की विवेचना करते हुए माननीय पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं-"संयम के सत्रह प्रकार हैं, जो भिन्न-भिन्न रूप में है : पाँच इन्द्रियों का निग्रह, पाँच अव्रतों का त्याग, चार कषायों का जय, तथा मन, वचन और काय की विरति। इसी प्रकार पाँच स्थावर और चार त्रस ये नौ संयम तथा प्रेक्ष्यसंयम, उपेक्ष्यसंयम, अपहृत्यसंयम, प्रमृज्यसंयम, कायसंयम, वाक्संयम, मन:संयम और उपकरणसंयम, इस तरह कुल सत्रह प्रकार का संयम है।" (त.सू./ वि.स./ पा.टि.९ / ६,पृ.२१०)। यहाँ संयम के सत्रह प्रकारों में पंचेन्द्रियनिग्रह सर्वप्रथम रखा गया है। इससे सिद्ध होता है कि पंचेन्द्रियनिग्रह संयम की बुनियाद है। पंचेन्द्रियनिग्रह तभी होता है, जब इन्द्रियाँ परीषहों से पीड़ित हों और पीड़ा से निवृत्ति के लिए जिस इष्ट विषय की अपेक्षा हो, उसकी इच्छा भी मन में न आने दी जाय और पीड़ा को समभाव से सह लिया जाय। इस तरह जब स्पर्शन इन्द्रिय को शीतादिजन्य पीडा हो रही हो, तब वस्त्रादि का परिभोग न करते हुए शीतादि की पीड़ा को धैर्यपूर्वक सहने से ही स्पर्शनेन्द्रिय का निग्रह होता है। यदि इस समय वस्त्रादि का परिभोग कर लिया जाय, तो इन्द्रियनिग्रह न होकर इन्द्रिय-अनुग्रह हो जायेगा जो असंयम है। अभिप्राय यह कि परीषहपीड़ा की स्थिति में पीड़ानिवारक विषय का परिभोग न करने से ही इन्द्रियनिग्रहरूप संयम फलित होता है। आचारांग में भी कहा गया है कि तीन वस्त्रों में से क्रमशः एक-एक का त्याग करते हुए जब अन्तिम वस्त्र का भी त्याग कर दिया जाता है और साधु अचेल हो जाता है, तब कायक्लेश होने से तप की सिद्धि होती है।५५ यह कहना युक्तिसंगत नहीं है कि यदि साधु वस्त्रधारण नहीं करेगा तो अग्नि जलाकर शीतादिपरीषहजन्य पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न करेगा, जिससे जीवहिंसा ५५.क- “अदुवा संतरुत्तरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ।" आचारांग/१/७/४/२०९-२१०। ख- "वस्त्रपरित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात्।" शीलांकाचार्य-वृत्ति / आचारांग १/७/४/२१० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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