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तृतीय प्रकरण वस्त्रादि संयम के साधक नहीं, घातक श्वेताम्बर आचार्यों ने वस्त्रादि के मूर्छाहेतुत्व एवं ग्रन्थत्व का निषेध इस आधार पर किया है कि वे संयम के साधन हैं। उनके अनुसार जो संयम का साधन होता है, वह मूर्छा का हेतु नहीं होता, इसलिए ग्रन्थ भी नहीं होता। किन्तु निम्नलिखित कारणों से सिद्ध होता है कि वस्त्रादि संयम के साधन नहीं हैं
वस्त्रादिग्रहण देहसुखसाधनार्थ श्वेताम्बरसाहित्य में तीन प्रयोजनों से वस्त्रग्रहण करने की छूट दी गई है-१. लिंगविकृति-आच्छादनार्थ, २. कामविकार-निगूहनार्थ और ३. परीषहपीड़ा-निवारणार्थ। परीषह-पीड़ा के निवारण का अर्थ है देहसुख की प्राप्ति, क्योंकि शीतादिपरीषह उत्पन्न होने पर देह को जो प्रतिकूलवेदन होता है वह दुःख है और वस्त्रादि के उपयोग से प्रतिकूलवेदन की निवृत्ति होने पर जो अनुकूलवेदन होता है वह सुख है। कहा भी गया है-"प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं, अनुकूलवेदनीयं सुखम्।"
प्रवचनपरीक्षाकार ने भी वस्त्रों को शीत, आतप, वात, दंशमशक आदि से उत्पन्न बाधाओं की चिकित्सा करनेवाली औषधि बतलाया है,५२ जिससे ध्वनित होता है कि वस्त्र प्रतिकूल वेदनीयरूप दु:ख के निवारक होने से अनुकूलवेदनीयरूप सुख के साधक हैं।
भगवती-आराधना में (जिसे पं० नाथूराम जी आदि विद्वानों ने यापनीयग्रन्थ मानने की भूल की है) कहा गया है-"शरीर इन्द्रियमय है। इन्द्रियमय शरीर के सुख के लिए ही वस्त्रादि ग्रहण किये जाते हैं। अतः जो वस्त्रग्रहण करता है, उसके भीतर इन्द्रियसुख की आकांक्षा है, यह सिद्ध होता है।" ५३
भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-"वस्त्र, चादर आदि इन्द्रियसुख के लिए ही ग्रहण किये जाते हैं, क्योंकि उनसे हवा, धूप आदि अनिष्ट स्पर्श का निरोध होता है।"५४ ५२. "शीतातपवातदंशमशकादिबाधितस्य शरीरस्य तच्चिकित्सामात्रोपयोगिनि वस्त्रे ---।"
प्रवचन-परीक्षा / वृत्ति / १/२/२८/ पृ.८९ । ५३. इंदियमयं सरीरं गंथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं।
इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणेण तो सिद्धो॥ ११५७॥ भगवती-आराधना। ५४. "परिग्रहं च चेलप्रावरणादिकमिन्द्रियसुखार्थमेव गृह्णाति, वातातपाद्यनभिमतस्पर्शनिषेधाय।"
विजयोदयाटीका/भगवती-आराधना/ गा.११५७।
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