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अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २११ जैसे माता के गर्भ से निकला हुआ शिशु सर्वथा नग्न होता है, वैसे ही निर्ग्रन्थमुनि सर्वथा नग्न होते हैं। अर्थात् उनके शरीर के किसी भी अंग पर वस्त्र का सद्भाव नहीं होता। वैदिकपरम्परा के 'परमहंसपरिव्राजकोपनिषद्' में भी बतलाया गया है कि कौपीन आदि समस्त परिग्रह का परित्याग कर देने पर यथाजातरूपसदृश रूप प्रकट होता है-"कटिसूत्रं कौपीनं दण्डं कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेत्।" (ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् / पृ.४१९)।
किन्तु श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने व्याकरण, शब्दकोश, शास्त्रप्रमाण और लोकप्रमाण, सबको ठुकराकर 'यथाजातरूप' शब्द का मनमाना अर्थ करते हुए लिखा है कि "जैनश्रमण का यथाजातरूप मुखवस्त्रिका, रजोहरण, चोलपट्टक मात्र माना गया है।" (मानव-भोज्य-मीमांसा / पृ. ४९२)।
संस्कृतभाषा का थोड़ा सा भी ज्ञान रखनेवाले मनुष्य को मुनि जी के इस अर्थ निरूपण पर हँसी आये बिना नहीं रहेगी, क्योंकि कोई भी बालक शरीर पर मुखवस्त्रिका, रजोहरण और चोलपट्टक धारण किये हुए माता के गर्भ से नहीं निकलता, अतः मुनि जी का इन उपकरणों से युक्त शरीर को जैन श्रमण का यथाजातरूप बतलाना विचित्र प्रतीत होगा। तथा इसे यथाजातरूप मानने पर तीर्थंकरों को भी मुखवस्त्रिका, रजोहरण
और चोलपट्टक धारण करनेवाला मानना होगा, क्योंकि वे भी यथाजातरूपधर कहे गये हैं। किन्तु मनुष्य न तो मुखवस्त्रिका आदि धारण किये हुए जन्म लेता है, न ही तीर्थंकर इन्हें धारण करते हैं। अतः 'यथाजातरूप' का उपर्युक्त अर्थप्ररूपण प्रत्यक्ष प्रमाण के विरुद्ध होने से हास्यास्पद है। .
यथाजातरूप शब्द का प्रयोग अपने सम्प्रदाय के सचेल मुनि पर घटाने की लालसा से मुनि जी के द्वारा किया गया यह हास्यास्पद प्रयास सिद्ध करता है कि साधु का यथाजातरूप (सर्वथा निर्वस्त्र रूप) ही तीर्थंकरोपदिष्ट है, इसीलिए वह इतना पूज्य और आकर्षक है कि मुनि श्री कल्याणविजय जी जैसे श्वेताम्बर दार्शनिक अपने सम्प्रदाय के सचेल मुनियों को यथाजातरूपधर नाम से प्रसिद्ध करने का लोभ संवरण न कर सके। यथाजातरूप की तीर्थंकरोपदिष्टता एवं श्वेताम्बरमुनियों के लिए भी उक्त नाम की स्पृहणीयता इस बात का प्रमाण है कि यथाजातरूपधर दिगम्बरमुनियों की परम्परा तीर्थंकरों-जितनी ही प्राचीन है।
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