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________________ २१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ / प्र०२ ___ यहाँ क्षुधातृषापरीषहजय के दृष्टान्त से अचेलपरीषहजय की व्याख्या उचित नहीं है। आहारत्याग का नाम क्षुधातृषापरीषहजय नहीं है, अपितु निर्दोष आहार न मिलने पर अयोग्य आहार ग्रहण न करना और अकाल में भिक्षा की इच्छा न करते हुए क्षुधातृषा की वेदना को समभाव से सहना क्षुधातृषापरीषहजय कहलाता है। (स. सि./ ९/९)। एषणीय आहार के ग्रहण से अनेषणीय आहार का त्याग अपने-आप हो जाता है, उस समय क्षुधावेदना होती ही नहीं है, तब क्षुधापरीषहजय के लिए अवकाश ही नहीं रहता। उसके लिए अवकाश तब रहता है, जब एषणीय आहार न मिले। इस स्थिति में क्षुधा की वेदना होती है और उसे सहने का अवसर मिलता है। अतः एषणीय आहार न मिलने पर अकाल में भिक्षा की इच्छा न करते हुए क्षुधा की वेदना को समभाव से सहना क्षुधातृषापरीषहजय है। इस प्रकार क्षुधातृषापरीषहजय के लिए आहार का सर्वथा त्याग नहीं किया जाता, किन्तु नाग्न्यपरीषहजय तो नग्नता के बिना संभव ही नहीं है। जब मुनि नग्न रहता है, तब उसके लोकविरुद्ध एवं बीभत्स रूप को देखकर लोग उसकी निन्दा कर सकते हैं, उस पर उपसर्ग कर सकते हैं तथा मुनि को भी स्वयं लज्जा आ सकती है और मन में कामविकार उत्पन्न हुआ, तो शरीर में अभिव्यक्त होने से घोर अपमान का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। अतः नग्न रहने पर उपस्थित होनेवाले लोकनिन्दा और उपसर्ग के प्रसंगों को धैर्यपूर्वक सहन करना तथा अपने नग्नरूप को देखकर लज्जित न होना और मन को काम से अभिभूत न होने देना नाग्न्यपरीषहजय है। सार यह कि वस्त्रादि की संयमोपकारिता के साथ मेल बैठाने के लिए परीषहजय के आगमप्रसिद्ध अर्थ का जो यह अपलाप किया गया है, उसके अर्थ को बदला गया है, उससे दिगम्बरमत की पूर्ववर्तिता सिद्ध होती है, क्योंकि परीषहजय की उक्त परिभाषा दिगम्बरत्व के साथ ही मेल खाती है। १४ 'यथाजातरूप' का हास्यास्पद अर्थप्ररूपण निर्ग्रन्थ मुनि के नग्न-स्वरूप की भ्रान्तिरहित प्रतीति कराने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने 'यथाजातरूप-रूप' शब्द का प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं। लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥ ९१॥ मोक्खपाहुड। 'यथाजातरूप' शब्द का अर्थ है माता के गर्भ से निकले हुए बालक का रूप-"यथाजातरूपं मातुर्गर्भनिर्गतबालकरूपम्" (श्रुतसागरटीका / मो.पा./ गा.९१)। अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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