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________________ अ० ३ / प्र० २ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २०९ करता है। इस प्रकार अचेल मुनि उपकरणों और कर्मों के भार मुक्त हो जाता है । " ( हिन्दी - अनुवाद / शीलांकाचार्यवृत्ति / आचा./१/७/७/२२०-२२१)। भगवती - आराधना की ४२३वीं गाथा की टीका में अपराजित सूरि लिखते हैं - " परीषहसूत्रों (उत्तराध्ययन) में जो शीत, दंशमशक, तृणस्पर्श आदि की पीड़ाओं को सहन करने के वचन हैं, उनसे सिद्ध होता है कि साधु को अचेल (नग्न) रहने का ही उपदेश दिया गया है, क्योंकि सवस्त्र को शीतादि की पीड़ाएँ नहीं होतीं । ४९ किन्तु वस्त्रादि को संयम का उपकारी मान लेने से अचेलत्व का निषेध हो जाता है, जिससे परीषहजय का उपदेश भी असंगत हो जाता है। अतः सवस्त्र रहते हुए भी परीषहजय के उपदेश की संगति बैठाने के लिए परवर्ती श्वेताम्बराचार्यों ने परीषहजय के अर्थ को ही बदल दिया । बोटिक शिवभूति जिनकल्प का पक्ष ग्रहण करते हुए कहता है कि आगम में मुनि को 'जिताचेलपरीषह' (नाग्न्यपरीषह को जीतनेवाला) कहा गया है, अतः अचेलत्व ही ग्राह्य है । ५० इसके उत्तर में गुरु आर्यकृष्ण कहते हैं- " यह हम भी जानते हैं कि मुनि जिताचेल - परीषह होता है। किन्तु अचेलपरीषह को जीतने का अर्थ सर्वथा वस्त्रत्याग नहीं है, अपितु अनेषणीय दोष से युक्त वस्त्र के त्याग को अचेलपरीषह - जय कहते हैं। यदि वस्त्र के सर्वथा परित्याग को अचेलपरीषहजय माना जाय तो आहार के भी सर्वथा त्याग को क्षुधा तृषापरीषहजय मानना होगा। पर ऐसा नहीं है, उद्गमादि दोषों से रहित शुद्ध एषणीय आहार - जल ग्रहण करने पर भी मुनि क्षुधा - तृषा परीषहों को जीतनेवाला कहलाता है । इसी प्रकार एषणीय वस्त्रों का उपयोग करते हुए भी केवल अनेषणीय वस्त्र का परिभोग न करनेवाला मुनि अचेल परीषहजयी कहलाता है । "५१ ४९. “इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु । न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२६ । ५०. जं च जियाचेलपरिसहो मुणी जं च तीहिं ठाणेहिं । वत्थं धरिज्ज गंतओ तओऽचेलया सेया ॥ २५५७ ॥ विशेषावश्यकभाष्य । अनुवाद - मुनि वही है, जो अचेलपरीषह को जीतता है और अचेल परीषह को वही जीतता है, जो वस्त्र त्याग देता है । तथा तीन स्थितियों में वस्त्र धारण करने की जो (श्वेताम्बरीय) आगम में अनुमति दी गई है, वह ऐकान्तिक नहीं है, अतः अचेलत्व ही श्रेयस्कर है। " ५१. “तस्मादनेषणीययादिदोषदुष्टवस्त्रपरिभोगेणैवाजिताचेलपरीषहत्वं भवति । " हेम.वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५९४ - ९७ । अनुवाद – इसलिए अनेषणीयादि दोषों से दूषित वस्त्र का परिभोग करने से ही मुनि परीषहों को न जीतनेवाला होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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