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________________ २०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ / प्र० २ " तस्मात् किं नाम तद् वस्त्वस्ति लोके यदात्मस्वरूपेण सर्वथा ग्रन्थोऽग्रन्थो वा? नास्त्येवैतदित्यर्थः। ततश्च 'मुच्छा परिग्गहो वृत्तो इइ वुत्तं महेसिणा' इत्यादिवचनाद् यत्र वसु-देहाऽऽहार- कनकादौ मूर्च्छा सम्पद्यते तद् निश्चयतः परमार्थतो ग्रन्थः । यत्र तु सा नोपजायते तदग्रन्थ इति । " ( हेम वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५७३-७४)। अनुवाद - " लोक में ऐसी कौनसी वस्तु है, जो अपने-आप में सर्वथा ग्रन्थ या अग्रन्थ हो ? अर्थात् कोई भी नहीं है । इसलिए 'भगवान् ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है' (दशवै.सू.) इस वचन के अनुसार जिन धन, देह, आहार, स्वर्ण आदि ('आदि' शब्द से युवती भी गृहीत है) में मूर्च्छा उत्पन्न होती है, वे परमार्थतः ग्रन्थ हैं, जिनमें नहीं होती, वे अग्रन्थ हैं । " ग्रन्थ (परिग्रह) और अग्रन्थ (अपरिग्रह ) की यह परिभाषा सोना-चाँदी, हीरेमोती और स्त्री के संग को भी अपरिग्रह सिद्ध कर देती है, जो भगवान् के उपदेश के विरुद्ध है। आचारांग में सभी प्रकार के स्थूल सूक्ष्म, चेतन-अचेतन बाह्य द्रव्य के संग को परिग्रह कहा गया है, यह पूर्व में निर्दिष्ट किया जा चुका है। और युवती का संग, उसकी देहोपकारिता तो ब्रह्मचर्य महाव्रत की उपघातक है। तब वह मोक्ष का साधन कैसे हो सकती है? वह तो नरक का साधन है। अतः वह मूर्च्छा का हेतु न हो, यह तो हो ही नहीं सकता। अतः उपर्युक्त हेतु और दृष्टान्त का प्रयोग कनक और युवती आदि को अग्रन्थ सिद्ध करने में सर्वथा असमर्थ है। निष्कर्ष यह कि उपर्युक्त हेतु - दृष्टान्तन्याय के अनुसार 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वुत्तं महेसिणा' (दशवैकालिक ६/२० ) परिग्रह की यह परिभाषा भगवान् के उपदेश के बिलकुल विरुद्ध है। इसका विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा । यहाँ सिर्फ यह द्रष्टव्य है कि उपर्युक्त प्रकार से स्वर्ण, स्त्री आदि के ग्रन्थत्व का निषेध करके परिग्रह की दिगम्बरमान्य परिभाषा का खण्डन किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि दिगम्बरमत शिवभूति और आर्यकृष्ण के पूर्व से चला आ रहा है। १३ परीषहजय के आगमप्रसिद्ध अर्थ का अपलाप वस्त्रादि को संयम का साधन मान लेने पर परीषहजय की आगम-प्रतिपादित परिभाषा से विसंवाद होना स्वाभाविक था । शीत, उष्ण, दंशमशक आदि से उत्पन्न पीड़ाओं को समभाव से सहने का नाम परीषहजय है। यह तभी संभव है जब शरीर नग्न हो । आचारांग में भी कहा गया है " जो मुनि अचेल विचरण करता है, उसे तृणस्पर्श - परीषह पीड़ित करता है, शीतपरीषह त्रास देता है, उष्णपरीषह सन्ताप देता है, डाँस-मच्छर पीड़ा पहुँचाते हैं और एक या अनेक अनुकूल-प्रतिकूल परीषह आते हैं। उन्हें वह भली-भाँति सहन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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