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________________ अ०३/प्र०२ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २०७ १२ स्वर्ण और युवती के ग्रन्थत्व का निषेध दिगम्बरमत में हेतु-दृष्टान्त-न्याय से वस्त्रादि को ग्रन्थ सिद्ध किया गया है। यथा-'वस्त्रादि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे मूर्छा के हेतु हैं, जैसे स्वर्ण आदि।' इसका खण्डन करने के लिए आर्यकृष्ण या उनकी तरफ से श्री जिनभद्रगणी अन्य हेतु और दृष्टान्त से स्वर्ण और स्त्री को भी अग्रन्थ सिद्ध करते हैं। जैसे-'स्वर्ण और धर्मान्तेवासिनी युवती मेरी है, क्योंकि वह मेरी देह के लिए उपकारी है, जैसे आहार।' गणी जी का कथन है कि युवती का देहोपकारित्व तो स्पष्ट है, स्वर्ण इसलिए देहोपकारी है कि उससे विष का उपचार होता है। देखिये विशेषावश्यकभाष्य की यह गाथा आहारो व्व न गंथो देहत्थं विसघायणट्ठाए। कणगं पि तहा जुवई धम्मंतेवासिणी मे त्ति॥ २५७२॥ जिनभद्रगणी जी का आशय यह है कि देह मोक्षसाधन का अंग है और आहार देह का उपकारी है, अतः वह भी मोक्ष का साधन है, इसलिए ये दोनों ग्रन्थ नहीं है। इसी प्रकार वस्त्र, पात्र, स्वर्ण, युवती आदि भी मोक्षसाधनभूत देह के उपकारी हैं, अतः ये भी मोक्षसाधन के अंग होने से परिग्रह नहीं हैं-"कनकयुवत्यादयोऽपि न ग्रन्थः, देहार्थत्वात् , आहारवदिति तात्पर्यम्।" (हेम.वृत्ति / विशे.भा./ गा.२५७२)। यदि इनमें मूर्छा होगी तो परिग्रह कहलायेंगे। किन्तु मोक्षसाधनबुद्धि से ग्रहण करने पर इनमें मूर्छा होगी ही नहीं। इस आशय का प्रतिपादन उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य की निम्नलिखित गाथाओं में किया है तम्हा किमत्थि वत्थु गंथोऽगंथो व सव्वहा लोए? गंथोऽगंथो व मओ मुच्छममुच्छाहिं निच्छयओ॥ २५७३॥ वत्थाई तेण जं जं संजमसाहणमराग-दोसस्स। तं तमपरिग्गहो च्चिय परिग्गहो जं तदुवघाइं॥ २५७४॥ इन गाथाओं का अभिप्राय वृत्तिकार हेमचन्द्र सूरि ने निम्नलिखित शब्दों में उपन्यस्त किया है४८. "अपि च, यदि वस्त्रादिकं ग्रन्थः, मूर्छादिहेतुत्वात् , कनकादिवदिति हेतुदृष्टान्तोपन्यासमात्रेणैव वस्त्रादेर्ग्रन्थत्वं साधयति भवान् , तर्हि वयमपि तदुपन्यासमात्रेण कनकादेरप्यग्रन्थत्वं साधयामः। कथम इत्याह --- कनकं तथा यवतिश्च धर्मान्तेवासिनी मे ममेति बद्ध्या परिगहतो न ग्रन्थ इति सम्बन्धः, एषा किल प्रतिज्ञा। कुतः? इत्याह-देहार्थमिति कृत्वा, अयं च हेतुः, देहार्थत्वात् देहप्रयोजनत्वात् देहोपकारित्वादित्यर्थः। ननु युवतेदेहोपकारित्वं किल प्रतीतम्, कनकस्य तु तत् कथम्? इत्याह-'विसघायणट्ठाए त्ति, विषघातकत्वादित्यर्थः---आहारवदिति दृष्टान्तः।" हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५७२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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