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________________ २०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ३ / प्र० २ होने से ग्रहण किये जाते हैं, अतः उनके ग्रहण से मूर्च्छा नहीं होती, इसलिए वे ग्रन्थ या परिग्रह नहीं हैं। किन्तु वस्त्रपात्रादि का ग्रहण मूर्च्छा का ही फल है और गृहीत वस्त्रपात्रादि मूर्च्छा के जनक हैं, अतः ग्रन्थ हैं, यह आगे स्पष्ट किया जायेगा । यहाँ केवल यह द्रष्टव्य है कि शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण के द्वारा इस दिगम्बरमान्यता का खण्डन किया जाना कि वस्त्रादि का ग्रहण मूर्च्छा का हेतु है, दिगम्बरमत की पूर्ववर्तिता सिद्ध करता है। ११ कषायादि के हेतु होते हुए भी वस्त्रादि के ग्रन्थत्व का निषेध शिवभूति दिगम्बरमत के अनुसार वस्त्रपात्रादि को कषाय, भय तथा रौद्रध्यान का हेतु बतलाकार उन्हें परित्याज्य कहता है । ४७ गुरु आर्यकृष्ण शिवभूति पर आक्षेप करते हुए कहते हैं- " यदि वस्त्रपात्रादि कषाय के हेतु हैं, इसलिए परिग्रह होने से मुमुक्षु को उनका परित्याग कर देना चाहिए, तो तुम्हारा अपना शरीर भी अपने आत्मा के लिए कषाय का हेतु है, अतः वह भी परिग्रह होने से परित्याज्य सिद्ध होता है । अथवा यदि तुम मानते हो कि देह कषायहेतु होते हुए भी मोक्षसाधनबुद्धि से ग्रहण किये जाने पर ग्रन्थ नहीं है, तो वस्त्रपात्रादि भी कषायहेतु होते हुए भी मोक्षसाधनबुद्धि से ग्रहण किये जाने पर ग्रन्थ सिद्ध नहीं होते।" (विशे. भा. / गा. २५५८-६१) । "इसी प्रकार यदि वस्त्रपात्रादि चोरों से भय उत्पन्न करते हैं, तो देह भी सिंहादि हिंस्र पशुओं से भयोत्पत्ति का हेतु है । किन्तु भय का हेतु होते हुए भी यदि धर्मसाधन होने से देह ग्रन्थ नहीं है, तो वस्त्र भी धर्मसाधन होने से ग्रन्थ कैसे हो सकते हैं?" (विशे. भा. / गा. २५६८-६९)। “तथा चोर-डाकुओं से वस्त्रपात्रादि की रक्षा के लिए यदि संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान उत्पन्न होता है, तो यह सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि से देह की रक्षा के लिए भी उत्पन्न होता है। किन्तु ऐसा होते हुए भी यदि धर्मसाधन का अंग होने से देह का संरक्षणानुबन्धविधान प्रशस्त ही है, दोषजनक नहीं, तो धर्मसाधन होने से वस्त्रादि का भी संरक्षणानुबन्धविधान प्रशस्त ही सिद्ध होता है, दोषपूर्ण नहीं।" (विशे.भा. / गा. २५७०-७१)। इस दिगम्बरमत के खण्डन से भी दिगम्बरमत की पूर्ववर्तिता सिद्ध होती है। ४७. “परलोकार्थिना स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्त्तव्यः, किं पुनरनेन कषायभयमूर्च्छादिदोषनिधिना परिग्रहानर्थेन ?" हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५५१-५२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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