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अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २०५ वेश और चरित का अनुकरण करने से नहीं, वैसे ही जिनवैद्य के उपदेश का पालन करनेवाला ही कर्मरोग से मुक्त होता है, उनके वेष और चरित का अनुकरण करनेवाला नहीं। जिनेन्द्रवत् योग्यता न रहते हुए भी, जो उनके वेश और चरित का अनुकरण करता है, वह उन्माद आदि का ही पात्र बनता है।"
____नग्नमुद्रा धारण कर तीर्थंकरों की बराबरी करने का यह निषेध भी दिगम्बरत्व की पूर्ववर्तिता का प्रमाण है, क्योंकि दिगम्बरपरम्परा में ही तीर्थंकरगृहीत मार्ग को अनुकरणीय मानकर प्रत्येक मुमुक्षु पुरुष के लिए दिगम्बरवेश अनिवार्यतः ग्राह्य बतलाया गया है।
संयमसाधनभूत वस्त्रादि के मूर्छाहेतुत्व का निषेध दिगम्बरपरम्परा वस्त्रपात्रादि को संयम का साधन नहीं मानती, इसके विपरीत उन्हें मूर्छा का फल और मूर्छा का हेतु मानती है, क्योंकि वे परीषहपीड़ा के न सहे जा सकने के कारण देहसुख की इच्छा से ग्रहण किये जाते हैं। इसका खंडन करने के लिए सचेल स्थविरकल्प के एकान्त समर्थक आर्यकृष्ण वस्त्रपात्रादि को पहले संयम का साधन सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं, पश्चात् संयमसाधनों के मूर्छाहेतुत्व का निषेध करते हैं। यथा
वत्थाई तेण जं जं संजमसाहणमरागदोसस्स।
तं तमपरिग्गहो च्चिय परिग्गहो जं तदुवघाइं॥ २५७४॥ विशे.भा.। अनुवाद-"रागद्वेषरहित जीव के वस्त्रादिरूप जो पदार्थ संयम के साधन हैं, वे परिग्रह नहीं हैं, अपितु जो संयम के उपघातक हैं, वे परिग्रह हैं।"
इसे वे देह और आहार के दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। वे कहते हैं-"यदि वस्त्रपात्रादि परद्रव्य होने से मूर्छा के हेतु हैं, तो देह और आहार भी परद्रव्य हैं, अतः उन्हें भी मूर्छा का हेतु मानना होगा। यदि तुम कहो कि देह
और आहार मोक्ष के साधन होने से मोक्षबुद्धि से ग्रहण किये जाते हैं, अत: उनमें मूर्छा नहीं हो सकती, तो वस्त्रपात्रादि भी मोक्ष के साधन हैं, उन्हें मोक्षसाधन-बुद्धि से ग्रहण करने पर मूर्छा कैसे हो सकती है?"४६ अर्थात् वस्त्रपात्रादि संयम के साधन
४६. मुच्छाहेऊ गंथो जइ तो देहाइओ कहमगंथो।
मुच्छावओ कहं वा गंथो वत्थादसंगस्स ॥ २५६२॥ अह देहाऽऽहाराइसु न मोक्खसाहणमईए ते मुच्छा। का मोक्खसाहणेसुं मुच्छा वत्थाइएसुं तो॥ २५६३॥ विशेषावश्यकभाष्य।
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