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२०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०२
तीर्थंकर इसके अपवाद शिवभूति की तरफ से प्रश्न उठाया गया है कि यदि वस्त्रपात्रादि संयम के उपकारी हैं, तो जिनेन्द्र ने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? इसके उत्तर में गुरु आर्यकृष्ण की ओर से जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण कहते हैं___"जिनेन्द्र अनुपमधृति और अनुपम संहनन के धारी, छद्मावस्था में चतुर्बानी, अतिशयसत्त्वसम्पन्न, अच्छिद्रपाणि और जितसमस्तपरीषह होते हैं, अतः वस्त्रपात्ररहित होने पर भी उन्हें संयमविराधनादि दोष नहीं लगते। फलस्वरूप उनके लिए वस्त्रपात्रादि उपकरण संयम के साधक नहीं हैं। अतः तीर्थंकर वस्त्रपात्रादि ग्रहण नई करते। तथापि यह उपदेश देने के लिए कि तीर्थ (मोक्षमार्ग) सवस्त्र ही है, और सवस्त्र साधु ही मोक्षमार्ग में चिरकाल तक होंगे, वे एकवस्त्र लेकर घर से निकलते हैं। जब वह वस्त्र गिर जाता है, तब निर्वस्त्र होते हैं, सदा नहीं। इस तरह जिनेन्द्र भी सर्वथा अचेलक नहीं होते।" (विशे.भा./गा. २५८१-८३)।
तीर्थंकरों की बराबरी करने का निषेध शिवभूति कहता है कि जिनेन्द्र भी अचेल थे, इसलिए मैं भी अचेल ही रहूँगा, क्योंकि जैसा गुरु का लिंग होता है, वैसा ही शिष्य का भी होना चाहिए। श्वेतपटधारी या नग्न साधु बुद्ध का शिष्य नहीं कहला सकता।
इसे आर्यकृष्ण अनुचित बतलाते हैं। वे कहते हैं-"यदि तीर्थंकर के शिष्य होने के कारण उनका वेश तुम्हारे लिए प्रमाण है, तो उनका उपदेश भी तुम्हारे लिए प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि गुरु के उपदेश का उल्लंघन करके शिष्य अभीष्ट की सिद्धि नहीं कर सकता। परमगुरु का उपदेश यह है कि जो निरुपम धृति और निरुपम संहनन आदि अतिशय से रहित है, उसे अचेलक कभी नहीं होना चाहिए।"
इस पर शिवभूति कहता है-"जैसे गुरु का उपदेश करणीय है, वैसे ही उनका वेष और चरित भी अवश्य आचरणीय हैं।"
___ आर्यकृष्ण कहते हैं-"यह अनुचित है, क्योंकि उनका उपदेश ही कार्यसाधक है। जैसे रोगी, वैद्य के उपदेश का पालन करने से ही रोग से मुक्त होता है, उसके ४५. जारिसियं गुरुलिंगं सीसेण वि तारिसेण होयव्वं ।
न हि होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखवणो वा॥ (विशेषावश्यकभाष्य-गाथा २५८५ की हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति में उद्धृत)।
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