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अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २०३ इत्यादिवचनात् समस्त-रात्रि-जागरणं कुर्वद्भिः साधुभिश्चत्वारः काला ग्रहीतव्याः। तच्च हिमकणप्रवर्षिणि शीते पतति चतुष्कालं गृह्णतां तेषामृषीणां कल्पाः प्रावृताः सन्तो निर्विघ्नं स्वाध्याय-ध्यानसाधनं कुर्वन्ति, शीतार्त्यपहरणादिति।" (हेम.वृत्ति / विशे.भा./२५७५-७६)।
अनुवाद-"वस्त्रादि संयम के साधक किस प्रकार हैं? सुनिए, सूती और ऊनी कल्पों (शरीर-प्रमाण आवरणों) से शीत से पीड़ित साधुओं की रक्षा होती है, आर्त्तध्यान का निवारण होता है तथा अग्निगत तृण आदि ईंधन में रहनेवाले जीवों की रक्षा होती है। क्योंकि यदि कल्प (आवरण) न हों, तो शीत से पीड़ित साधु अग्नि जलाकर शीत से बचने का प्रयत्न करेंगे जिससे तृणादि ईंधन में रहनेवाले जीवों का घात अवश्यम्भावी है। कल्पों को ओढ़ लेने से अग्नि जलाये बिना भी शीत की पीड़ा का निवारण हो जाता है। तथा आगम के अनुसार समस्त रात्रि में जागरण करनेवाले साधुओं को चार काल ग्रहण करना चाहिए। जो साधु हिमकण बरसानेवाली शीत में चार काल ग्रहण करते हैं, वे कल्पों (सूती-ऊनी चादरों) से आवृत्त होने पर ध्यान और अध्ययन निर्विघ्न सम्पन्न करते हैं, क्योंकि उन्हें शीत की पीड़ा नहीं हो पाती।"
वृत्तिकार आगे लिखते हैं-"तथा यदि साधु की पुरुषेन्द्रिय विकृत है, तो वस्त्रधारण करने से उसकी विकृति ढंक जाती है, जिससे वह लोगों के लिए ग्लानि का कारण नहीं बनता। इसके अतिरिक्त स्त्रियों को देखने से यदि उसके लिंग का उत्थान हो जाता है, तो चोलपट्टक पहनने से वह प्रकट नहीं हो पाता। फलस्वरूप वह लोगों के सामने लज्जित होने से बच जाता है। इस तरह उसके लज्जारूप संयम का पालन होता है।३ वस्त्रधारण करने से पूर्व में कहे अनुसार पाँच समितियों का भी पालन होता है।" विशेषावश्यकभाष्यकार ने पात्र की संयमोपकारिता का भी विस्तार से निरूपण किया है। इस तरह आर्यकृष्ण ने शिवभूति के समक्ष वस्त्रपात्र की संयमोपकारिता
का जो विस्तार से वर्णन किया था उसे जिनभद्रगणी ने विशेषावश्यकभाष्य में अभिलिखित किया है। यह दिगम्बरपरम्परा द्वारा वस्त्रपात्रादि को असंयमकारी कहे जाने की प्रतिक्रिया का फल है। इससे दिगम्बरमत की पूर्ववर्तिता सिद्ध होती है।
४२. वेउव्वेऽवायडे वाइए हीखड्डे पजणणे चेव।
तेसिं अणुग्गहठ्ठा लिंगुदयट्ठा य पट्टो ओ॥ कल्पभाष्य।
(विशेषावश्यकभाष्य गा. २५७५-७९ की हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति में उद्धृत।) ४३. "हीर्लज्जा संयमो वा।" (हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५५३-५७। ४४. विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५७५-७९।
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