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________________ २०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०२ और ऐसा करते समय किसी के द्वारा आक्षेप किये जाने पर भाषासमिति का भी ध्यान नहीं रख पायेगा। आदान-निक्षेपण समिति भी वस्त्रपात्रादि के बिना संभव नहीं हैं। समितियों के अभाव में संयम का अभाव होता है। वस्त्र के अभाव में साधु रासभ आदि के समान निर्लज्ज हो जाता है। निर्लज्ज पुरुष चारित्र का पालन कैसे कर सकता है? वस्त्रावृत पुरुष ही लज्जायुक्त होकर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, अन्यथा जैसे घोड़ी को देखकर घोड़े की लिंगविकृति हो जाती है, वैसे ही स्त्री को देखकर साधु के भी लिंग में विकार उत्पन्न हो सकता है, जिससे प्रवचनोड्डाह (जिनशासन के अनुयायियों में उत्पन्न विकृति) और अब्रह्मसेवा आदि बहुत से दोष सर्वजनविदित हो सकते हैं। इस तरह अचेलता लज्जा की रक्षा में समर्थ न होने से असंयम का कारण है। ____ अचेलत्व में इन संयमादिविराधक दोषों के होने की घोषणा गुरु आर्यकृष्ण ने शिवभूति के समक्ष की थी, जिसका वर्णन जिनभद्रगणी ने विशेषावश्यकभाष्य में किया है। इससे सिद्ध होता है कि आर्यकृष्ण (ई० प्रथम शताब्दी) के पूर्व दिगम्बरपरम्परा विद्यमान थी। वस्त्रादि के संयमसाधक होने का प्रतिपादन जिनभद्रगणी ने आर्यकृष्ण की ओर से अचेलत्व को संयमादि का विराधक घोषित कर वस्त्रपात्रादि को संयम का उपकारी बतलाया है, जिसे वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है "कं नाम संयमोपकारं करोति वस्त्रादिकम्? इति यदि तव मतिः, तर्हि कथ्यते शृणु-सौत्रिकौर्णिककल्पैस्तावत् शीतार्तानां त्राणं, साधूनामार्तध्यानापहरणं क्रियते। तथा ज्वलन-तृणादीन्धनगतानां सत्त्वानां त्राणं रक्षणं "क्रियते'। --- यदि कल्पाः न भवेयुः, तदा शीतार्ताः साधवोऽग्नि-तृणादीन्धन-ज्वलनं कुर्युः। तत्करणे चावश्यम्भावी तद्गतसत्त्वोपघातः। कल्पैस्तु प्रावृतैरेष न भवत्येव, अग्नितृणादिज्वलनमन्तरेणापि शीतार्तिनिवृत्तेरिति। तथा "कालचउक्कं उक्कोसए जहन्ने तियं तु बोधव्वं" ४०. “समित्याद्यभावात् संयमाभावः।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/१८/ पृ.८२। ४१. "वस्त्राभावे च रासभादिवदविशेषेण लज्जाराहित्यं स्यात् । लजारहितस्य च कुतश्चारित्र पालनम्? ---वस्त्रावृतस्य लज्जया ब्रह्मचर्यं स्याद् , अन्यथा वडवादर्शनाद् वाडवस्येव स्त्रीदर्शनाल्लिङ्गादिविकृत्या प्रवचनोड्डाहाब्रह्मसेवादयो बहवो दोषाः सर्वजनविदिता भवेयः।" वही/१/२/३०/ पृ.९१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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