________________
अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २०१ सचेल मुनि और अचेलकधर्म का अर्थ है सचेलधर्म। इस प्रकार उन्होंने सचेलत्व का सुख भोगते हुए अपने को तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट अचेलकधर्म का अनुयायी सिद्ध करके दिखा दिया। उनकी यह अद्भुत कला दिगम्बरमत की प्राचीनता को उजागर करने में अभूतपूर्व साधन बनी है। इसने साबित कर दिया है कि यतः अचेलक शब्द का वास्तविक अर्थ सर्वथा निर्वस्त्र अर्थात् दिगम्बर है, अतः भगवान् महावीर ने वस्तुतः दिगम्बरधर्म का ही उपदेश दिया था, अतः वही मौलिक एवं पूर्ववर्ती है।
अचेलत्व के संयमादिघातक२६ होने का उद्घोष पंचमकाल में एकमात्र सचेल स्थविरकल्प को आचरणीय सिद्ध करने के लिए श्वेताम्बराचार्यों ने न केवल जिनकल्प (अचेलत्व) के उच्छेद की घोषणा कर दी, बल्कि अचेलत्व को संयम का घातक और ध्यान-अध्ययन आदि में बाधक भी करार दिया। श्री जिनभद्रगणी कहते हैं कि शरीर को वस्त्र से आवृत न करने पर शीतपरीषह से साधु को आर्त्तध्यान होता है, जिससे उसका मन ध्यान और अध्ययन में नहीं लगता। शीतनिवारण के लिए यदि वह अग्नि प्रज्वलित करता है, तो उससे तृण और ईंधन में रहनेवाले जीवों का घात होता है, जिससे संयम की विराधना होती है।३७ जैसे क्षुधादि से पीड़ित शरीर संयम का हेतु नहीं है, वैसे ही शीत, आतप, दंशमशक आदि से पीड़ित शरीर भी संयम का हेतु नहीं है।८ ___ वस्त्र के अभाव में ईर्यादि पाँच समितियों का भी पालन नहीं हो पाता।३९ ठंड, धूप, हवा, वर्षा आदि उपद्रवों के समय तदनुकूल धृतिसंहनन आदि बल से रहित साधु जल्दी-जल्दी आता-जाता है, जिससे ईर्यासमिति का पालन नहीं होता। पात्र के अभाव में हाथ में रखे हुए सत्तू, दही आदि के गिर जाने के भय से जल्दी-जल्दी लेकर जल्दी-जल्दी खायेगा, जिससे अनेषणा समिति का पालन नहीं हो पायेगा। पात्र न होने पर भूमि पर ही प्रश्रवण (मूत्रोत्सर्ग) और सिंघान (नासिकामलक्षेपण) आदि करने से अनेक जीवों का घात होगा, जिससे परिष्ठापनिका समिति सम्पन्न नहीं होगी
३६. "वस्त्राभावे ये संयमविराधनादयो दोषाः प्रोक्ताः---1" हेम.वृत्ति. / विशे.भा./२५८१-८३/
पृ.५१६। ३७. वही / गा. २५७५-७९ / पृ.५१५ । ३८. "यथा क्षुधादिपीडितं शरीरं न संयमहेतुस्तथा शीतातपदंशमशकादिपीडितमपीति बोध्यम्।"
प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति १/२/२९ / पृ.९१ । . "वस्त्रपात्राद्युपकरणाभावे समितयः ईर्याभाषैषणादानपरिष्ठापनिकालक्षणाः पञ्च समितयो न
भवन्ति, तदभावाच्च कुतः संयमः?" वही/ १/२/१८ / पृ.८१ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org