________________
२०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०२ ३. रूढार्थ का प्रतिपादन शब्द के अभिधा-व्यापार द्वारा होता है, उपचरित अर्थ का प्रतिपादन लक्षणा-व्यापार के द्वारा।
४. रूढार्थ का बोध मुख्यार्थबाध के व्यवधान के बिना होता है, उपचरित अर्थ का बोध मुख्यार्थबाध के व्यवधानपूर्वक होता है।
५. रूढ़ अर्थ शब्द में सदा विद्यमान रहता है, उपचरित अर्थ शब्द का उपचार से प्रयोग करने पर ही आता है।
६. रूढ़ शब्द के प्रयोग से सामान्यवाक्यार्थ का बोध होता है, उपचरित शब्द के प्रयोग से विशेषवाक्यार्थ की प्रतीति होती है। विशेषवाक्यार्थ की प्रतीति कराना ही उपचार का प्रयोजन होता है।
इस प्रकार रूढार्थ और उपचरित अर्थ परस्पर विरुद्ध होते हैं। अतः यदि सचेल स्त्री-पुरुष के लिए नग्न शब्द का प्रयोग लोकरूढ़ माना जाय, तो उसे उपचार से प्रयुक्त नहीं माना जा सकता, और यदि उपचार से प्रयुक्त माना जाय, तो लोकरूढ़ नहीं माना जा सकता। इस तरह सचेल स्त्री-पुरुष के लिए 'नग्न' या 'अचेल' शब्द के प्रयोग के विषय में ये परस्पर विरुद्ध मान्यताएँ एक-दूसरे को असत्य सिद्ध करती हैं।
यहाँ तक प्रस्तुत किये गये ये बहुमुखी विविध प्रमाण उपर्युक्त कल्पनाओं की अप्रामाणिकता को अनेक द्वारों से उद्घाटित कर सिद्ध कर देते हैं कि न तो आगम में सचेल मुनि के लिए 'अचेल' या 'नग्न' शब्द का प्रयोग किया गया है, न ही सचेल स्त्री-पुरुष को नग्न कहना लोकरूढ़ि है और न सचेल मुनि को उपचार से अचेल या नग्न कहा जा सकता है।
'अचेलक' शब्द के प्रति जैसा आकर्षण श्वेताम्बरपरम्परा में दिखायी देता है, वह आश्चर्यकारक है। 'अचेलक' शब्द सवस्त्रमुक्तिप्रतिपादक श्वेताम्बरपरम्परा के विरुद्ध है, तथापि इस परम्परा ने प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को केवल अचेलकधर्म का
और शेष २२ तीर्थंकरों को अचेल और सचेल, दोनों धर्मों का उपदेशक स्वीकार किया है। किन्तु 'अचेलक' शब्द की जैसी मिट्टीपलीद भी श्वेताम्बरपरम्परा ने की है, वह भी अद्भुत है। लोगों को जैनधर्म के इतिहास तथा संस्कृत-प्राकृत एवं लोकभाषा के ज्ञान से सर्वथा शून्य मानते हुए तथा भाषा और व्याकरण के सभी नियमों को ताक पर रखते हुए श्वेताम्बराचार्यों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 'अचेलक' शब्द वस्तुतः 'सचेल' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः अचेल मुनि का अर्थ है
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org