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________________ अ० ३ / प्र० २ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १९९ २. साधुओं के दस स्थितिकल्प बतलानेवाली 'आचेलक्कुद्देसिय ३४ गाथा में ऐसा कोई भी संकेत नहीं है कि वहाँ 'आचेलक्य' शब्द से मुख्य आचेलक्य और औपचारिक आचेलक्य ये दो अर्थ अपेक्षित हैं। यदि ऐसा होता, तो मूल में ही अगली गाथा के द्वारा इसका स्पष्टीकरण कर दिया गया होता। ३. श्वेताम्बर आगमों में जहाँ सचेलत्व का कथन अपेक्षित था, वहाँ ' सचेल' या 'सान्तरोत्तर' शब्दों का ही प्रयोग किया गया है, उपचार से 'अचेल' शब्द का नहीं । ३५ ४. यदि मोक्षमार्गभूत आचेलक्य के मुख्य और उपचाररूप भेद हों, तो, मोक्ष के भी मुख्य और उपचाररूप भेद होंगे। और औपचारिक आचेलक्यवाले को औपचारिक मोक्ष की ही प्राप्ति होगी, मुख्य ( वास्तविक ) मोक्ष की नहीं । किन्तु आगम में मोक्ष के मुख्य और औपचारिक भेद नहीं मिलते। इससे सिद्ध है कि आचेलक्य के भी मुख्य और उपचाररूप भेद आगमोक्त नहीं हैं। ५. यदि सचेल को उपचार से अचेल माना जाय तो सचेलत्व (एषणीय वस्त्रधारण करने) को उपचार से अचेलपरीषह मानना होगा । किन्तु वस्त्रधारण करना तो शीतादिपरीषह निवारण का साधन है, अतः उसमें परीषह का लक्षण घटित नहीं होता, फलस्वरूप सचेल मुनि को उपचार से अचेल मानने पर अचेलपरीषह के अभाव का प्रसंग आता है, जो कि आगमविरुद्ध है। इससे सिद्ध होता है कि सचेल को उपचार से अचेल मानना आगमसम्मत नहीं है। ५.७. लोकरूढ़ि एवं उपचार परस्परविरुद्ध श्वेताम्बराचार्यों ने लोकरूढ़ि एवं उपचार दोनों से सचेल मुनियों के लिए अचेल या नग्न शब्द के प्रयोग की पुष्टि करने का प्रयत्न किया है, किन्तु दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। यथा १. शब्द में जो अर्थ रूढ़ हो जाता है, वह शब्द का मुख्यार्थ बन जाता है, लेकिन उपचरित अर्थ मुख्यार्थ नहीं बनता। इसलिए रूढ़ अर्थ शब्द को सुनते ही समझ में आ जाता है, किन्तु उपचरित अर्थ समझने की कोशिश करने पर समझ में आता है। कभी-कभी कोशिश करने पर भी समझ में नहीं आता, इसलिए समझदारों से पूछना पड़ता है। २. रूढ़ शब्द का मुख्यार्थ लोक में सत्य माना जाता है, किन्तु उपचरित शब्द के मुख्यार्थ को सब असत्य मानते हैं। ३४. जीतकल्पभाष्य / गाथा १९७२ ( जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १२६) । ३५. देखिये, इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण के शीर्षक ५ एवं ६ | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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