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________________ १९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ३ / प्र० २ किन्तु 'जीर्णवस्त्रधारी' अर्थ उपचरित नग्न शब्द का उपचरित अर्थ नहीं है, क्योंकि 'जीर्णवस्त्रधारित्व' निर्लज्जता आदि के समान नग्न व्यक्ति का कोई गुण-धर्म नहीं है। वह नग्न व्यक्ति में पाया ही नहीं जाता। जो नग्न है, वह जीर्णवस्त्रधारी नहीं हो सकता, जो जीर्णवस्त्रधारी है, वह नग्न नहीं हो सकता । अतः नग्न व्यक्ति में जिस धर्म का आत्यन्तिक अभाव है, वह 'नग्न' शब्द का उपचरित अर्थ नहीं हो सकता । अतः 'नग्न' शब्द की लक्षणाशक्ति से उसका लक्षित होना संभव नहीं है। इस प्रकार लोक में जैसे अत्यन्त क्रौर्य - शौर्य - गुणवाले बालक को ही उपचार से सिंह कहा जाता है, जैसे अत्यन्त मन्दबुद्धि मनुष्य को ही उपचार से बैल, गधा या उल्लू शब्द से पुकारा जाता है, जैसे अत्यन्त दुष्ट स्त्री को ही उपचार से चुड़ैल नाम दिया जाता है, वैसे ही अत्यन्त निर्लज्ज, दरिद्र, नीच या बेइज्जत वस्त्रधारी मनुष्य को ही उपचार से नग्न या नंगा कहा जाता है। इसलिए यदि लौकिक दृष्टान्तों से सचेल मुनि को उपचार से अचेल या नग्न कहे जाने का औचित्य सिद्ध किया जाय, तो सचेलमुनि को निर्लज्ज, असभ्य, दरिद्र, या विक्षिप्त माने जाने का प्रसंग आता है। श्वेताम्बराचार्यों ने दिगम्बरजैन मुनियों को नग्न होने के कारण निर्लज्ज, बीभत्स, भण्डिकचेष्टाकारी आदि उपाधियों से विभूषित किया ही है, इसके प्रमाण पूर्व ( शीर्षक ४.३) में दिये जा चुके हैं। उपचार इस विपरीत परिणाम से सिद्ध है कि सचेल मुनि को उपचार से अचेल नहीं कहा जा सकता। यदि यह माना जाय कि तीर्थंकरों ने सचेल मुनियों के लिए उपचार से 'अचेल ' या 'नग्न' शब्द का व्यवहार किये जाने का उपदेश दिया है, तो इसका यह अभिप्राय होगा कि तीर्थंकर सचेल मुनियों में निर्लज्जता, दरिद्रता आदि धर्म द्योतित करना चाहते थे । किन्तु सचेल मुनियों न तो ये धर्म होते हैं, न ही तीर्थंकरों का उक्त अभिप्राय हो सकता है। इससे निर्णीत होता है कि सचेल मुनियों के लिए उपचार से 'अचेल ' या ‘नग्न' शब्द का व्यवहार तीर्थंकरोपदिष्ट नहीं है, अपितु श्वेताम्बरटीकाकारों की देन है और इसका प्रयोजन था 'नग्न' शब्द के 'सर्वथा निर्वस्त्र' अर्थ को झुठलाकर दिगम्बरजैनमत को अतीर्थंकरप्रणीत सिद्ध करने का प्रयास। अनभिज्ञतावश टीकाकारों ने यह नहीं सोचा कि सचेल मुनियों को उपचार से नग्न कहकर वे उन्हें निर्लज्ज, दरिद्र आदि कहने का प्रयास कर रहे हैं। ५.६. द्विविध नग्नत्व के आगमप्रमाण उपलब्ध नहीं १. मोक्षमार्ग के उपदेष्टा भगवान् महावीर की दृष्टि में अचेलत्व अर्थात् नग्नत्व दो प्रकार का था : मुख्य और औपचारिक, इसे सिद्ध करने के लिए विशेषावश्यकभाष्य वृत्तिकार श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने कोई आगमप्रमाण नहीं दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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