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१९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०२ ___यतः उपचरित शब्द के ही मुख्यार्थ का बाध होता है, मुख्य शब्द के मुख्यार्थ का नहीं, अतः उपर्युक्त कारिका में उपचरित शब्द के ही मुख्यार्थबाध की बात कही गई है और उपचरित शब्द के मुख्यार्थ से सम्बद्ध अन्य अर्थ के ही लक्षणा द्वारा बोध कराये जाने का कथन किया गया है। वैयाकरणों और काव्यशास्त्रियों के इस कथन से प्रमाणित है कि उपचरित शब्द का प्रयोग मुख्यार्थ से संयुक्त अन्य अर्थ का बोध कराने के लिए ही किया जाता है।
उदाहरणार्थ 'यह बालक सिंह है' इस उपचारकथन में 'सिंह' शब्द उपचरित है, अतः उसका सिंह-नामक-क्रूरपशुरूप मुख्यार्थ बाधित होता है। किन्तु उसके मुख्यार्थ के साथ क्रौर्यशौर्यादिगुण-युक्तरूप अन्य अर्थ सम्बद्ध है। बालक में भी सिंहसदृश क्रौर्यशौर्यादिगुण विद्यमान हैं। अतः इन गुणों की अपेक्षा बालक और सिंह में सादृश्यसम्बन्ध है। तथा वक्ता का प्रयोजन भी यह बतलाना है कि बालक में क्रौर्यशौर्यादि गुणों की अधिकता है। इस प्रयोजन से ही वक्ता बालक को उपचार से सिंह कहता है। इस दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है कि उपचरित शब्द का प्रयोग उपचरित अर्थ का बोध कराने के लिए ही होता है, अतः उपचरित शब्द से उपचरित अर्थ ही ग्राह्य है। अर्थात् 'यह बालक सिंह है' यहाँ उपचरित 'सिंह' शब्द से यह उपचरित अर्थ ग्रहण करना चाहिए कि बालक अत्यन्त क्रूर और शूर है। जिस बालक को सिंह कहा जाता है, वह मुख्यार्थ की अपेक्षा सिंह नहीं होता, अपितु उपचरित अर्थ की अपेक्षा अर्थात् क्रौर्यशौर्यादिगुण-युक्तता की अपेक्षा सिंह होता है।
दिगम्बरपरम्परा में भी आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती कहा गया है। इसे स्पष्ट करते हए आचार्य जयसेन कहते हैं कि उपचार में मख्यार्थ की अपेक्षा कथन नहीं होता। जैसे 'यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर है' इस कथन में देवदत्त को मुख्यार्थ की अपेक्षा (साक्षात्) अग्नि नहीं कहा गया है, अपितु अत्यन्त उग्रस्वभावरूप उपचरित अर्थ की अपेक्षा अग्नि कहा गया है, वैसे ही आर्यिकाओं को उपचारतः महाव्रती कहने से यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हें मुख्यार्थ की अपेक्षा महाव्रती कहा गया है, बल्कि 'महाव्रती' शब्द के मुख्यार्थ, के साथ जो श्रावकोत्तर-संयम-धारिणीरूप अन्य अर्थ सम्बद्ध है, जिसे उपचरित अर्थ कहते हैं, उसकी अपेक्षा वे महाव्रती सिद्ध होती हैं।
श्रावकों के समान श्राविकाओं में भी उत्कृष्ट (क्षुल्लिका), मध्यम और जघन्य श्रेणियाँ होती हैं। आर्यिका-श्रेणी इनसे उच्च है, क्योंकि आर्यिकाएँ स्त्रीसामर्थ्ययोग्य उच्चतम संयम का पालन करती हैं। महाव्रतों के साथ स्त्रीयोग्य उच्चतम संयम का सादृश्यसम्बन्ध है। अतः आर्यिकाओं में उसके (स्त्रीयोग्य उच्चतम संयम के) अस्तित्व का बोध कराने के लिए उन्हें उपचार से महाव्रती कहा जाता है। इससे स्त्रियों की उपर्युक्त
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