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________________ अ०३/ प्र०२ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १९५ जा सकता है तथा उसमें क्रौर्यशौर्यादि का अतिशय बतलाना वक्ता का प्रयोजन भी है, अतः यह उपचार नियमानुरूप होने से उपचार संज्ञा पाता है। इनमें से एक भी नियम का उल्लंघन होने पर किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के धर्म का आरोप उपचार संज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता। उपचार के और भी उदाहरण लिये जा सकते हैं, जैसे 'यह लड़का गधा है,' 'वह लड़की तो सरस्वती है,' 'आप मनुष्य नहीं देवता हैं', 'वह इंसान नहीं, शैतान है' इत्यादि। उपचार के ये उदाहरण भी उपर्युक्त तीनों नियमों पर आधारित हैं। ५.३. उपचरितशब्द का मुख्यार्थ असत्य, अत एव अग्राह्य 'यह बालक सिंह है' इस उदाहरण में बालक में सिंहशब्द का उपचार किया गया है, अतः यहाँ सिंहशब्द उपचरित है। यतः बालक को सिंह कहना असत्य है, अतः उपचरित शब्द का मुख्यार्थ असत्य होता है। 'उपचरित' विशेषण 'उपचरित' शब्द के मुख्यार्थ की असत्यता, बाधितता या अनुपपन्नता का सूचक है। अतः उपचरित शब्द का मुख्यार्थ अग्राह्य है, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में 'सिंह' शब्द का सिंहनामक क्रूरपशुरूप मुख्यार्थ अग्राह्य है। इसी प्रकार किसी सवस्त्र स्त्री या पुरुष को उपचार से नग्न कहने पर 'नग्न' शब्द का निर्वस्त्ररूप मुख्यार्थ असत्य होता है, अतः वह अग्राह्य है। ५.४. उपचरित शब्द से उपचरित अर्थ ग्राह्य यतः उपचरित शब्द का मुख्यार्थ असत्य होने से अग्राह्य होता है, अतः उपचरित शब्द का प्रयोग मुख्यार्थ से सम्बद्ध किसी अन्य अर्थ का बोध कराने के लिए किया जाता है। उसे उपचरित अर्थ कहते हैं। मुख्यार्थ न होने से वह शब्द की अभिधाशक्ति द्वारा प्रतिपादित नहीं होता, अतः उसका प्रतिपादन लक्षणाशक्ति से होता है, इसलिए वह लक्ष्यार्थ भी कहलाता है। इसका प्ररूपण प्रसिद्ध काव्यशास्त्री मम्मट ने काव्यप्रकाश की निम्नलिखित कारिका में किया है मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात्। अन्योऽर्थों लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया॥ २/९॥ अनुवाद-"शब्द का जो मुख्यार्थ होता है, वह यदि बाधित या असंगत हो और उस मुख्यार्थ से किसी अन्य अर्थ का सम्बन्ध हो, तो रूढि अथवा प्रयोजनविशेष से वह अन्य अर्थ जिस शब्दशक्ति के द्वारा लक्षित किया जाता है, उसे लक्षणा कहते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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