SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० ३ / प्र० २ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १८९ उसके गुह्यप्रदेश को नंगा नहीं कहते, बल्कि उस मनुष्य को ही नंगा कहते हैं, इससे सिद्ध है कि मनुष्य के नग्न कहे जाने का हेतु उसके गुह्यप्रदेश का अनावृत होना ही है। श्वेताम्बरमुनि उपाध्याय धर्मसागर जी लिखते हैं कि वस्त्रधारण करने का प्रमुख उद्देश्य असभ्य अवयवों अर्थात् गुह्यांगों का गोपन ही है- " लोकैरपि वस्त्रपरिधानं मुख्यवृत्या असभ्यावयवगोपननिमित्तमेव क्रियते । " ( प्रव.परी./ वृत्ति / १/२/३१ /पृ.९३) । असभ्य अवयवों के गोपन से लज्जारूप मानवधर्म या लोकानुवृत्तिधर्म का पालन होता है - " वस्त्रधरणे लोकानुवृत्तिधर्मः --- स्यात् । " ( प्रव. परी. / १ / २ /३० / पृ.९१) । इसलिए वस्त्र भले ही छोटा ( स्तोक), पुराना (जीर्ण) और मैलाकुचैला (कुत्सित) हो, उससे यदि असभ्य अवयवों का गोपन होता है और लज्जारूप मानवधर्म की रक्षा होती है, तो उसके धारण के बाद मनुष्य के नग्न कहे जाने का कोई कारण नहीं रहता। इसीलिए स्वयं श्वेताम्बरग्रन्थों में श्वेतपट साधुओं को अल्प, जीर्ण और कुत्सित वस्त्र धारण करनेवाला कहा गया है, किन्तु नग्न, निर्लज्ज या बीभत्स शब्दों से सम्बोधित नहीं किया गया। इसके विपरीत दिगम्बरजैन मुनियों को नग्न, नग्नाट, लज्जाहीन, बीभत्स, भण्डिकचेष्टाकारी आदि उपाधियाँ दी गयी हैं । यथा - "वयं पृच्छामः - भो नग्नाट! निजशरीरे तव मूर्च्छास्ति न वा ?" ( प्रव. परी / वृत्ति १ / २ / ६ / पृ. ७१) । अयं पापात्मा कुलवधूनामप्यवाच्यं दर्शयन् न लज्जते । नग्नरूपतया बीभत्सं त्वदीयं शरीरमेव। (प्रव.परी./वृत्ति / १/२/६/ पृ. ७३) । नग्नस्य ते वेश्यादिजनोपान्त एवोपवेशनादिकं युक्तं, भण्डिकचेष्टायाः तत्रैव युक्तत्वात् । ( प्रव.परी / वृत्ति / १ / २ /३० / पृ. ९५) । गोपनीय - लिङ्गोपस्थादिकं दर्शयति तस्य पार्श्वे यदि 'धर्मः ' धर्मप्राप्तिः स्यात् तर्हि कुत्रान्यत्राधर्मः? - हे नग्नाट! त्वमेव पापात्मा मूर्तिमानधर्म एव । " ( प्रव. परी. / वृत्ति / १ / २ / ४२ / पृ. १०३ - १०४) । यः वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों में भी श्वेताम्बर साधुओं के लिए नग्न और अह्नीक (निर्लज्ज) शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता, किन्तु निर्ग्रन्थों (दिगम्बरजैन साधुओं) को सर्वत्र नग्न और अह्नीक विशेषणों के साथ वर्णित किया गया है। लोक में पहलवान केवल लँगोट पहन कर सार्वजनिकरूप से कुश्ती का प्रदर्शन करते हैं, उन्हें कोई भी नग्न नहीं कहता। वैदिक सम्प्रदाय के अनेक संन्यासी कौपीन मात्र धारण करते हैं, उन्हें भी कोई नग्न नहीं मानता। दिगम्बरजैन एलकपदस्थ श्रावक भी केवल लँगोटधारी होते हैं, वे भी नग्न नहीं कहे जाते, किन्तु दिगम्बरजैन मुनि को हर कोई नग्न कहता है । ये इस बात के प्रमाण हैं कि लोक में गुह्यांग-गोपन न करनेवाले को ही नग्न कहा जाता है। अतः जिनभद्रगणी जी का यह कथन अप्रामाणिक है कि लोक में अल्प, जीर्ण और मैलेकुचैले वस्त्रधारण करनेवालों के लिए भी 'नग्न' शब्द रूढ़ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy