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________________ १९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०२ 'रूढ़' का अर्थ है सर्वमान्य या सर्वजनप्रसिद्ध, जैसे 'कुशल' शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ है 'कुशों को तोड़कर लानेवाला', किन्तु वह 'दक्ष' अर्थ में रूढ़ (प्रसिद्ध) है, अर्थात् सभी लोग उससे 'दक्ष' अर्थ ही ग्रहण करते हैं, 'कुश तोड़कर लानेवाला' अर्थ नहीं। अतः 'चित्रकला में कुशल' इस वाक्य को पढ़-सुनकर सभी समझ जाते हैं कि इसका अर्थ है चित्र कला में दक्ष। किन्तु 'मैंने मार्ग में एक नग्न मनुष्य को देखा है' ऐसा कहने पर कोई भी श्रोता यह नहीं समझ पायेगा कि मैंने एक फटे-पुराने या अल्प वस्त्रधारी मनुष्य को देखा है। सभी यह अर्थ ग्रहण करेंगे कि मैंने एक निर्वस्त्र अर्थात् खुले गुह्यांगवाले मनुष्य को देखा है। इससे सिद्ध है कि 'नग्न' शब्द फटे-पुराने या अल्प वस्त्रधारी मनुष्य के अर्थ में रूढ़ नहीं है, अपितु निर्वस्त्र मनुष्य के ही अर्थ में प्रसिद्ध है। ४.१. रूढार्थ द्वारा मूलमुख्यार्थ का निरसन यह ध्यान देने योग्य है कि जब कोई शब्द अपने व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ से अर्थात् मल मख्यार्थ से भिन्न अर्थ में रूढ या प्रचलित हो जाता है, तब उसका व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ (मूल मुख्यार्थ) अप्रचलित हो जाता है। जैसे 'कुशल' शब्द 'दक्ष' अर्थ में रूढ़ हुआ, तो उसका 'कुश तोड़कर लानेवाला' व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ अर्थात् मूलमुख्यार्थ अप्रचलित हो गया। 'तेल' शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ है तिल से निकला हआ स्निग्ध द्रव. किन्तु वह मूंगफली, सरसों, अलसी, सोयाबीन, नारियल आदि सभी पदार्थों से निकले हुए स्निग्ध द्रव के अर्थ में रूढ़ हो गया। परिणामस्वरूप उसके व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ का प्रचलन बन्द हो गया और 'तेल लाओ' कहने से यह समझना असंभव हो गया कि तिल से निकले हुए स्निग्ध द्रव को लाने के लिए कहा जा रहा है, अतः इस अर्थ को समझाने के लिए 'तिल का तेल लाओ' यह कहना आवश्यक हो गया। 'रुपया' (रूप्यम्) शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ रूप्य (चाँदी) से बना हुआ सिक्का है, किन्तु अब स्टील से बने हुए सिक्के और कागज से बने हुए नोटों के अर्थ में रूढ़ हो गया है। अतः इसका 'चाँदी से बना हुआ सिक्का' अर्थ अप्रचलित हो गया। इसी प्रकार व्युत्पत्ति के अनुसार सभी पशुओं का वाचक 'मृग' शब्द 'हिरण' अर्थ में रूढ़ होने पर सभी पशुओं का वाचक नहीं रहा। 'सिंह' शब्द 'हिंस्' धातु से वर्ण-विपर्ययपूर्वक व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है कोई भी हिंसक प्राणी। किन्तु उसमें 'सिंह' नामक सर्वाधिक क्रूर और पराक्रमी पशु का अर्थ रूढ़ हो गया, जिससे उसने सभी हिंसक पशुओं के अर्थ का वाचकत्व खो दिया। 'गो' शब्द 'गच्छति अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'गम्' धातु से निष्पन्न है और मूलतः 'गमन के साधन' अर्थ का वाचक है, किन्तु 'गाय' अर्थ में रूढ़ हो जाने पर मूल अर्थ के वाचकत्व से हाथ धो बैठा। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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