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________________ १८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०२ लज्जा का अनुभव होता है, अतः वह मूल्य लेकर भी साड़ी बनाने में देर करनेवाले जुलाहे से शीघ्रता कराना चाहती है।२७ दूसरे लोग उसे नग्न नहीं कह सकते। उदाहरणार्थ, उस स्त्री के स्वयं को नग्न कहने पर यदि जुलाहे के उत्तर की कल्पना की जाय, तो वह उत्तर देता कि "तुम नग्न होतीं, तो अपने घर से निकलकर यहाँ तक न आतीं। लोग तुम्हें पगली कहते और ले जाकर घर में बन्द कर देते। नग्न अवस्था में तो कोई गणिका भी घर से बाहर नहीं निकलती।" इसी प्रकार यदि कोई बालक दूसरे बालक से कहता कि "देखो, वह स्त्री नग्न है", तो दूसरे बालक को हँसी आ जाती और कहता कि "तुम्हें 'नग्न' शब्द का अर्थ नहीं मालूम। नग्न उसे कहते हैं, जिसके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं होता। वह स्त्री तो साड़ी पहने हुई है। भले ही बहुछिद्रयुक्त है, फिर भी पहनने लायक है अर्थात् जिन अंगों को ढंके बिना घर से बाहर निकलना संभव नहीं है, वे ढंके हुए हैं। इसलिए वह नग्न नहीं है।" इसी तरह किसी चोलपट्टधारी श्वेताम्बर साधु को देखकर कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य से कहे कि "देखो, दिगम्बरसाधु जा रहे हैं," तो वह भी हँस पड़ेगा और कहेगा कि "तुम अन्धे हो। ये साधु तो वस्त्र पहने हुए हैं, तुम इन्हें दिगम्बर कहते हो? ये तो श्वेताम्बर साधु हैं। दिगम्बर साधु तो नग्न होते हैं।" इन दृष्टान्तों से सिद्ध है कि लोक में 'नग्न' शब्द सवस्त्र मनुष्य के लिए प्रसिद्ध नहीं है। यदि होता तो श्वेताम्बर ओर दिगम्बर साधुओं में भेद बतलाना असम्भव हो जाता। लोक में उसी मनुष्य को नग्न कहा जाता है, जिसका कटिप्रदेश वस्त्र से आच्छादित न हो। यदि किसी पुरुष का शरीर मस्तक से नाभि तक और चरणों से घुटनों तक वस्त्र से ढंका है, किन्तु कटिभाग उघड़ा है, जिससे गोपनीय अंग दिखाई देते हैं, तो लोक में वह नग्न ही कहा जाता है। इसके विपरीत यदि गुह्यांग आच्छादित हैं और सम्पूर्ण शरीर उघड़ा है, तो वह नग्न नहीं कहा जाता। हाँ, गुह्यांगों के आवृत होने पर अन्य अंगों की अनावृतता दर्शाने के लिए उन्हीं अंगों को नंगा कहा जाता है, जैसे नंगे सिर (टोपी, साफा आदि से रहित), नंगे पाँव (जूते-चप्पल से रहित) नंगी छाती, नंगी पीठ, नंगी जाँघ आदि। यहाँ तक कि 'नंगी आँखों से चन्द्र-ग्रहण नहीं देखना चाहिए' ऐसा भी कहा जाता है। लेकिन जिसका गुह्यप्रदेश अनावृत हो २७. "यथा वा काचिदविरतिका परिजीर्णवस्त्रपरिधाना प्राक्समर्पितवेतनं तन्तुवायं शाटिका निष्पादनालसं ब्रवीति, यथा-जीर्णवस्त्रैः परिहितैनग्निकाऽहमस्मि ततस्त्वरस्व हे शलिक! तन्तुवाय! देहि मे पोतिकां शाटिकाम्।" क्षेमकीर्तिवृत्ति / बृहत्कल्पसूत्र / भाष्यगाथा ६३६६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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