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________________ १८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०२ श्वेतवस्त्र धारण करने लगे थे, वे ही श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध हुए थे, इसका भी लोक साक्षी था। अतः इस सचेलकवेश में वे तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट अचेलकधर्म के अनुयायी साधु सिद्ध नहीं हो सकते थे। और लोकमान्यता के विरुद्ध जाकर वे. महावीर को सचेलकधर्म का उपदेशक घोषित कर नहीं सकते थे, तथा महावीर के नाम को छोड़ भी नहीं सकते थे। क्योंकि महावीर के नाम को छोड़ देने से उनका मत अतीर्थंकर-प्रणीत सिद्ध हुए बिना नहीं रहता। वे बड़ी उलझन में पड़ गये। जैसे गर्म दूध के घुट को न निगल सकते हैं, न उगल सकते हैं, वैसे ही वे महावीर को न तो सचेलकधर्म का उपदेष्टा घोषित कर सकते थे, न ही उनके नाम को छोड़ सकते थे। इस उलझन से छुटकारा पाने के लिए उनके सामने एक ही रास्ता था। वह था 'अचेलक' शब्द को ज्यों का त्यों स्वीकार कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न करना कि 'अचेलक' शब्द 'सर्वथा वस्त्ररहित' (नग्न) अर्थ का वाचक नहीं है, अपितु 'जीर्ण-शीर्ण-अल्प-श्वेतवस्त्रधारी' अर्थ का वाचक है। इससे भगवान् महावीर को अचेलकधर्म का उपदेष्टा कहते हुए भी यह सिद्ध किया जा सकेगा कि वे वास्तव में सचेलधर्म के उपदेशक थे। ऐसा करने से इतना ही महत्त्वपूर्ण एक और प्रयोजन सिद्ध होता था। वह यह कि तीर्थंकर महावीर के सचेलकधर्म के उपदेशक सिद्ध हो जाने से यह सिद्ध हो जाता है कि अचेलकधर्मानुयायी दिगम्बरजैनमत अतीर्थंकरप्रणीत निह्नवमत है। इन्हीं दो प्रयोजनों से वे गाथाएँ रची गयीं। किन्तु उन गाथाओं को रचते समय श्री जिनभद्रगणी आदि आचार्य यह भूल गये कि संस्कृत-प्राकृत का कोई भी ज्ञाता 'अचेलक' शब्द के उक्त अर्थ पर विश्वास नहीं करेगा और वह अर्थ मिथ्या होने से तीर्थंकर के वचन अविश्वसनीय सिद्ध होंगे। __इन प्रमाणों से सिद्ध है कि आगम में सचेल साधु के लिए 'अचेल' शब्द का व्यवहार प्रसिद्ध नहीं है। उत्तरवर्ती श्वेताम्बर-टीकाकारों ने 'अचेल' शब्द पर 'सचेल' अर्थ का आरोप किया है, जिससे 'अचेल' शब्द के 'नग्न' अर्थ को झठा सिद्ध कर श्वेताम्बरमत को तीर्थंकरोपदिष्ट तथा दिगम्बरजैनमत को तीर्थंकरों द्वारा अनुपदिष्ट सिद्ध किया जा सके। उपर्युक्त प्रमाणों से उनका यह अभिप्राय निर्वस्त्र हो जाता है। श्वेताम्बरपरम्परा को तीर्थंकरप्रणीत और दिगम्बरपरम्परा को अतीर्थंकरप्रणीत सिद्ध करने के लिए 'अचेलक' और 'सचेलक' शब्दों की ऐसी अप्रामाणिक (अतीर्थंकरवचन-भूत) व्याख्याएँ करने का प्रयत्न ही इस बात का बलिष्ठ प्रमाण है कि श्वेताम्बरसाहित्य दिगम्बरपरम्परा से सुपरिचित है, जो दिगम्बरपरम्परा की पूर्ववर्तिता का सबूत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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