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________________ अ०३ / प्र०२ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १८५ हो सकते। युक्तिमत् वचन ही आप्तवचन होता है, अतः वही ग्राह्य है, जैसा कि श्री हरिभद्रसूरि ने लोकतत्त्वनिर्णय में कहा है पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः॥ ३८॥ ३.१२. सर्वसंकरत्व-दोष की उत्पत्ति नग्न शब्द नग्न (खुले हुए गुह्यांगवाला) और अनग्न (ढंके हुए गुह्यांगवाला), इन परस्परविरुद्ध दो अर्थों का वाचक नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो, तो अधर्म शब्द अधर्म और धर्म दोनों अर्थों का वाचक सिद्ध होगा, पाप शब्द पाप और पुण्य दोनों अर्थों का प्रतिपादक ठहरेगा। तब लोग अधर्म करते हुए भी अपने को धार्मिक मानने लगेंगे. पाप करते हए भी स्वयं को पण्यकर्ता समझने लगेंगे। 'नग्न' शब्द को उपर्युक्त परस्परविरुद्ध दो अर्थों का प्रतिादक मानने पर 'सम्यग्दर्शन' शब्द सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन दोनों अर्थों का वाचक सिद्ध होगा, 'सम्यग्ज्ञान' शब्द सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान दोनों अर्थों का प्रतिपादक साबित होगा, 'सम्यक्चारित्र' शब्द सम्यक्चारित्र और मिथ्याचारित्र दोनों अर्थों का प्ररूपक ठहरेगा। इस तरह मोक्षमार्ग शब्द 'संसारमार्ग' अर्थ का भी वाचक बन जायेगा। 'जीव' शब्द 'पुद्गल' अर्थ का भी प्रतिपादक हो जायेगा। इससे जीवादि नौ पदार्थों में कोई भेद नहीं रहेगा, सर्वसंकर-दोष की उत्पत्ति हो जायेगी, जीवादि पदार्थों के भिन्न-भिन्न लक्षण निरर्थक सिद्ध होंगे। फलस्वरूप सम्यग्दर्शन का आधारभूत भेदविज्ञान असंभव हो जायेगा और जीव मिथ्यादृष्टि का मिथ्यादृष्टि और संसारी का संसारी बना रहेगा। इस तरह 'नग्न' शब्द को नग्न (खुले हुए गुह्यांगवाला) तथा अनग्न (ढंके हुए गुह्यांगवाला), इन परस्परविरुद्ध दो अर्थों का वाचक मानने पर उपर्युक्त तात्त्विक अव्यवस्था पैदा हो जायेगी, जो जिनेन्द्र को अभीष्ट नहीं हो सकती थी। अतः सिद्ध है कि नग्न शब्द को नग्न और अनग्न, इन दो परस्परविरुद्ध अर्थों का वाचक मानना जिनोपदिष्ट नहीं है। ३.१३. स्वमत को तीर्थंकरोपदिष्ट सिद्ध करने हेतु 'अचेलक' शब्द का विपरीतार्थ प्ररूपण श्री जिनभद्रगणी आदि ने जो 'अचेलक' शब्द का विपरीतार्थ-प्ररूपण करनेवाली पूर्वोद्धृत गाथाएँ रची हैं, उनसे यह महान् रहस्य उद्घाटित होता है कि उनके सामने श्वेताम्बरमत को तीर्थंकरोपदिष्ट सिद्ध करने का यही एकमात्र उपाय था। 'अचेलक' शब्द का सत्यार्थरूप में प्ररूपण उनके इस प्रयोजन की सिद्धि में बाधक था। तीर्थंकर महावीर लोक में अचेलकधर्म के उपदेष्टा के रूप में प्रसिद्ध थे और अचेलक शब्द का सर्वथानिर्वस्त्र अर्थ भी आगमप्रसिद्ध और लोकप्रसिद्ध था। तथा जो अचेलक साधु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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