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________________ १८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ / प्र० २ कि श्वेतवस्त्र ही श्वेताम्बर साधुओं और साध्वियों का सम्प्रदायगत या लिंगगत वेश है। अत: ‘सचेल' शब्द को 'बहुमूल्य - पंचवर्ण-वस्त्रधारी' अर्थात् 'रंगबिरंगे कीमती वस्त्रधारी साधु' अर्थ का प्रतिपादक मानना श्वेताम्बरसम्प्रदाय के नाम और साधुओं के शरीरशृंगार में राग के अभाव तथा अपरिग्रहमहाव्रत को सन्देहास्पद बना देता है । अतः ' सचेल' शब्द का उपर्युक्त अर्थ प्रामाणिक नहीं है। ३.११. 'नग्न' विशेषण के 'सर्वथा निर्वस्त्र' और 'अल्पवस्त्रयुक्त,' दो अर्थ असंभव यद्यपि 'आचारांग' और 'स्थानांग' में अचेल शब्द का अर्थ सर्वथा निर्वस्त्र (अनावृतसर्वांग) ही बतलाया गया है, तथापि व्याकरण के अनुसार 'अल्प' अर्थ सूचित करने के लिए भी 'अ' (नञ्) के साथ 'चेल' शब्द का समास होता है, तब जो 'अचेल ' शब्द बनता है, उसका अर्थ 'अल्पचेल' भी होता है । किन्तु 'नग्न' विशेषण का अल्पार्थक 'अ' (नञ्) के साथ समास नहीं है, इसलिए उसका सर्वथा निर्वस्त्र अथवा अनावृतगुह्यांगवाला अर्थ ही संभव है, अल्पवस्त्रयुक्त अर्थ नहीं । अतः 'तत्त्वार्थसूत्र' में साधुओं के लिए जो नाग्न्यपरीषहजय आवश्यक बतलाया गया है, उसमें नग्न विशेषण से सर्वथा निर्वस्त्र अर्थात् अनावृत - सर्वांगवाला अर्थ ही प्रतिपादित होता है, अल्पवस्त्रयुक्त अर्थ नहीं। इसी प्रकार श्री संघदासगणी ने मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के प्रसंग में 'अचेल' विशेषण को 'नग्न' का पर्यायवाची बतलाया है, अतः यहाँ भी वह 'सर्वथा निर्वस्त्र' (अनावृत-सर्वाङ्ग) अर्थ का ही प्रतिपादक है, 'अल्पवस्त्रयुक्त' अर्थ का नहीं । फलस्वरूप 'नग्न' विशेषण तीर्थंकरों के साथ प्रयुक्त होने पर उनके सर्वथा निर्वस्त्र होने की विशेषता बतलाये और साधुओं के साथ प्रयुक्त होने पर उनके अल्पवस्त्रयुक्त होने का वैशिष्ट्य प्ररूपित करे, यह संभव नहीं है। जैसे 'काला' विशेषण कौए के साथ प्रयुक्त होने पर उसके काले होने की विशेषता बतलाये और बगुले के साथ प्रयुक्त कर देने पर उसके सफेद होने की विशेषता बतलाये, यह संभव नहीं है, जैसे 'सुन्दर' विशेषण सुन्दर मनुष्य के साथ संयुक्त होने पर उसके सुन्दर होने का गुण बतलाये और कुरूप मनुष्य के साथ संयुक्तकर देने पर उसके कुरूप होने का गुण बतलाये, यह संभव नहीं है, वैसे ही 'नग्नं' विशेषण सर्वथा निर्वस्त्र पुरुष के साथ व्यवहृत होने पर उसके सर्वथा निर्वस्त्र होने का धर्म सूचित करे और अल्पवस्त्रयुक्त के साथ व्यवहृत होने पर उसके अल्पवस्त्रयुक्त होने का धर्म प्ररूपित करे, यह संभव नहीं है। अतः जैसे तीर्थंकरों को नग्न कहने से उनका सर्वथा निर्वस्त्र होना सूचित होता है, वैसे ही साधुओं को नग्न कहने से उनका भी सर्वथा निर्वस्त्र होना सूचित होता है। अल्पार्थक नञ् (अ) के साथ जिसका समास नहीं है, उस 'नग्न' विशेषण का इसके अलावा और कोई अर्थ नहीं हो सकता। और कोई अर्थ बतलाना तीर्थंकरों को अयुक्तिमत् उपदेश देने का दोषी ठहराना है। तीर्थंकरों के वचन अयुक्तिमत् नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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