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________________ अ०३/प्र०२ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १८१ होने के कारण ग्रहण ही नहीं कर सकते थे। और तीर्थंकरों के वचन अन्यथा अर्थ के प्रतिपादक नहीं होते। अतः यदि तीर्थंकरों ने अचेल और अचेल-सचेल धर्मों का उपदेश दिया है, तो इन अचेल और सचेल शब्दों से वही अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, जो संस्कृत-प्राकृत-भाषा-सम्मत, लोकभाषा-सम्मत और आगम-सम्मत है, उससे उलटा अर्थ नहीं। उससे उलटा अर्थ ग्रहण करने पर ये शब्द आप्तवचन अर्थात् तीर्थंकरवचन नहीं कहला सकते। इससे सिद्ध होता है कि अचेल और सचेल शब्दों का उपर्युक्त उलटे या अप्रामाणिक अर्थों में प्रयोग तीर्थंकरों, गणधरों या गाथाकार आचार्यों ने नहीं किया, अपितु उत्तरवर्ती टीकाकारोंने किया है, जिससे उनके सम्प्रदाय के शास्त्रों से प्रतिपक्षी दिगम्बरपरम्परा का अस्तित्व सिद्ध न हो पाये। श्वेताम्बर ग्रन्थकारों में इस प्रवृत्ति के अस्तित्व की पुष्टि प्रसिद्ध श्वेताम्बर मुनि श्री नगराज जी डी० लिट० ने की है। (देखिये, अध्याय ३/प्र.२/शी. २)। श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदास जी ने भी ऐसा ही मत प्रकट किया है। (देखिये, अध्याय २/प्र.३/शी. ३.१०)। ३.६. सचेल की 'अचेल' संज्ञा गुणाश्रित नहीं सचेल साधु में अचेलत्व (नग्नत्व) गुण नहीं होता, इसलिए उसकी 'अचेल' संज्ञा गुणश्रित नहीं है, अपितु आरोपित है। इस कारण उसका अचेलक नाम प्रचलित नहीं हो सकता। अत एव उसके लिए प्रचलित किया गया अचेलक नाम आप्तवचन नहीं है। ३.७. 'अचेलत्व' सचेल साधु का असाधारणधर्म नहीं अचेलत्व सचेल साधु का असाधारणधर्म या लक्षण नहीं है, क्योंकि वह किसी भी सचेलसाधु में उपलब्ध नहीं होता, इसके विपरीत अचेल साधुओं में उपलब्ध होता है, अतः वह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव, इन तीनों दोषों से युक्त है। जो धर्म इन तीन दोषों से रहित होता है, वही वस्तुविशेष का असाधारणधर्म-रूप लक्षण होता है-"लक्षणन्त्वसाधारणधर्मवचनम्" (केशवमिश्रकृत तर्कभाषा/पृ.८) और वस्तु का लक्षण ही अन्य वस्तुओं से उसकी भिन्नता का द्योतक एवं उसके नामविशेष के व्यवहार का हेतु होता है-व्यावृत्तिर्व्यवहारो वा लक्षणस्य प्रयोजनम्। (श्रीकेशवमिश्रकृत : तर्कभाषा / उपोद्घात : आचार्य विश्वेश्वर / पृ.१२)।अर्थात् वस्तु का नामनिर्धारण उसके लक्षण पर आश्रित होता है। अचेलत्व सचेलमुनि का लक्षण नहीं है अतः उसे अचेलक नाम से व्यवहत नहीं किया जा सकता। इस तरह चूँकि सचेल की 'अचेल' संज्ञा न्यायशास्त्र-सम्मत नहीं है, इसलिए उसका 'अचेल' अर्थ में आप्त (जिनेन्द्र) द्वारा प्रयुक्त होना असंभव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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