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अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १७९ फलस्वरूप इसे सार्थक सिद्ध करने के लिए व्याख्याकारों ने यह व्याख्या की, कि 'अचेल' शब्द सफेद रंग के फटे-पुराने, शरीरप्रमाण, अल्प वस्त्र धारण करने वाले साधु का वाचक है और 'सचेल' शब्द बहुमूल्य, रंगीन एवं शरीरप्रमाण से बडे, विशिष्ट वस्त्रधारण करने वाले साधु का। देखिए
"साधूनां तु प्रथमचरमजिनतीर्थे श्वेतवर्णमानोपेत-जीर्णप्रायस्वल्पवस्त्रधारणेन प्रवरवेषाभावादचेलकत्वम्।--- अजितादिद्वाविंशतिजिनसाधूनां तु ऋजुप्राज्ञत्वाद् बहुमूल्यपञ्चवर्णवस्त्रधारणात् केषाञ्चित् सचेलकत्वं, केषाञ्चिच्च श्वेतवर्णमानोपेतवस्त्रधारणादचेलकत्वम्।" (कल्पकौमुदीवृत्ति / कल्पसूत्र / क्षण १ / पृ.२)।
अनुवाद-"प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुगण श्वेतवर्ण के जीर्णप्राय, स्वल्प वस्त्र धारण करते थे और करते हैं, अतः प्रवरवेशरहित होने से वे अचेलक कहलाते थे तथा कहलाते हैं। किन्तु अजितनाथ आदि बाईस तीर्थंकरों के कुछ साधु ऋजुप्राज्ञ होने से बहुमूल्य, पञ्चवर्णात्मक वस्त्रधारण करते थे, अतः सचेलक कहलाते थे और कुछ श्वेतवर्ण के जीर्णप्राय वस्त्रधारण करने से अचेलक नाम से जाने जाते थे।"
"मध्यमतीर्थकरसत्काः साधवः प्रमाणातिरिक्त-महामूल्यादिभिर्वासोभिराच्छादितवपुषो नातिक्रामन्ति भगवतीमाज्ञामिति गम्यते।" (बृ.कल्प/लघुभाष्यवृत्ति/६/६३७०)।
अनुवाद-"बीच के बाईस तीर्थंकरों के साधु शरीरप्रमाण से बड़े और महामूल्य वस्त्रों से शरीर आच्छादित करते थे, तो भी भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते थे अर्थात् परिग्रही नहीं होते थे, वे सचेल कहलाते थे।"
उत्तराध्ययन (२३/१३) में पार्श्वनाथ के सान्तरोत्तर धर्म की व्याख्या करते हुए श्री नेमिचन्द्र सूरि लिखते हैं
"सान्तराणि वर्द्धमानस्वामि-यत्यपेक्षया मानवर्णविशेषतः सविशेषाणि, उत्तराणि महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमात् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरधर्मः देशितः।"
अनुवाद-"जिस धर्म में 'सान्तर' अर्थात् वर्धमान स्वामी के साधुओं के वस्त्रों की अपेक्षा जो प्रमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा 'उत्तर' अर्थात् महामूल्य होने के कारण प्रधानभूत होते हैं, वे वस्त्र धारण किये जाते हैं, वह धर्म सान्तरोत्तर है।"
इस तरह ‘सचेल' और 'सान्तरोत्तरवस्त्रधारी' दोनों को एकार्थक बतलाते हुए यह व्याख्या की गई है कि वेशकीमती, रंगविरंगे, विशिष्टवस्त्रधारी साधुओं को आगम में सचेल कहा गया है।
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