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१७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३ / प्र० २
यह कहा गया है कि "भगवान् ऋषभदेव और महावीर ने अपने तीर्थ के साधुओं को अचेलकधर्म का उपदेश दिया था और मध्य के बाईस तीर्थंकरों ने अपने तीर्थ के साधुओं को अचेल और सचेल दोनों धर्मों का" इस कथन पर अपनी मान्यता का आरोप करने के लिए श्री संघदासगणी ने तीर्थंकर ऋषभदेव और महावीर के प्रसंग में अचेलक शब्द को सचेलक का वाचक बतलाया है और मध्य के बाईस तीर्थंकरों के प्रसंग में नग्न का वाचक । देखिये बृहत्कल्प - लघुभाष्य की निम्नलिखित गाथाएँ —
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आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं होंति अचेलो सचेलो य॥ ६३६९॥
६३७० ॥ इनमें से ६३७०वीं गाथा का अर्थ खोलते हुए वृत्तिकार क्षेमकीर्ति कहते हैं'मध्यमाः मध्यमतीर्थकरसत्काः साधवः 'प्रतिमया वा' नग्नतया 'प्रावृता वा' प्रमाणातिरिक्तमहामूल्यादिभिर्वासोभिराच्छादित - वपुषो नातिक्रामन्ति भागवतीमाज्ञामिति गम्यते । पूर्वचरमाणां तु प्रथम- पश्चिमतीर्थकरसाधूनां' अमहाधनानि' स्वल्पमूल्यानि 'भिन्नानि च' अकृत्स्नानि प्रमाणोपेतान्यदशकानि चेत्यर्थः --- । "
पडिमाऍ पाउता वा णऽतिक्कमंते उ मज्झिमा समणा । पुरिम- चरिमाण अमहद्धणा तु भिण्णा इमे मोत्तुं ॥
अनुवाद - " मध्यमतीर्थंकरों के तीर्थ के साधु नग्न रहें अथवा शरीर के प्रमाण से भी बड़े महामूल्यवान् वस्त्रों से तन आच्छादित करें, दोनों ही स्थितियों में वे भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के साधु स्वल्पमूल्यवाले, खंडित एवं शरीरप्रमाण वस्त्र धारण करते हैं---।"
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यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि श्री संघदासगणी ने पूर्वोद्धृत ६३६५वीं गाथा में केवल तीर्थंकरों के प्रसंग में 'अचेलक' शब्द को 'नग्न' अर्थ का वाचक बतलाया है, तथापि यहाँ मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं के प्रसंग में भी 'अचेल' शब्द को 'नग्न' अर्थ का प्रतिपादक प्ररूपित किया है । किन्तु उत्तरवर्ती टीकाकारों ने यहाँ के 'अचेल' शब्द को भी 'सचेल' का वाचक घोषित कर दिया। (देखिये, अगला शीर्षक ३.३) ।
३.३. 'अचेल' शब्द का अशास्त्रप्रसिद्ध - अलोकप्रसिद्ध अर्थप्ररूपण
श्वेताम्बराचार्यों ने जब अचेलक या अचेल शब्द को सचेल का वाचक घोषित कर दिया, तब मध्यम ( बीच के बाईस ) तीर्थंकरों को अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेशक बतलाये जाने से सचेल शब्द का पृथक् से उल्लेख निरर्थक हो गया ।
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