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________________ अ० ३ / प्र० २ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १७७ एवं दुग्गत-पहिता अचेलगा होंति ते भवे बुद्धी । ते खलु असंततीए धरेंति ण तु धम्मबुद्धीए ॥ ६३६८ ॥ इसका स्पष्टीकरण वृत्तिकार आचार्य श्री क्षेमकीर्ति ने इन शब्दों में किया है "यदि जीर्ण - खण्डितादिभिर्वस्त्रैः प्रावृतैः साधवोऽचेलकास्तत एवं दुर्गताश्च दरिद्राः पथिकाश्च--- तेऽप्यचेलका भवन्तीति 'ते' तव बुद्धिः स्यात् तत्रोच्यतेते खलु दुर्गत-पथिकाः 'असत्तया' नव-व्यूत - सदशकादीनां वस्त्राणामसम्पत्त्या परिजीर्णादीनि वासांसि धारयन्ति, न पुनधर्मबुद्ध्या । अतो भावतस्तद्विषयमूर्च्छापरिणामस्यानिवृत्तत्वान्नैते अचेलकाः । साधवस्तु सति लाभे महाधनादीनि परिहृत्य जीर्णखण्डितादीनि धर्मबुद्ध्या धारयन्तीत्यतोऽचेला उच्यन्ते ।" (बृहत्कल्प- लघुभाष्य-वृत्ति / गा. ६३६८) । अनुवाद - " यदि फटे-पुराने वस्त्र धारण करने से साधु अचेलक कहलाते हैं, तो दरिद्र पथिक भी अचेलक कहलाने लगेंगे, ऐसी शंका होने पर समाधान यह है कि दरिद्र पथिक तो नवीन वस्त्र प्राप्त न होने से फटे-पुराने वस्त्र धारण करते हैं, धर्मबुद्धि से नहीं। अतः वे मूर्च्छापरिणाम से निवृत्त न होने के कारण अचेलक नहीं कहलाते। किन्तु साधु तो बहुमूल्य वस्त्र त्याग कर धर्मबुद्धि से फटे-पुराने वस्त्र धारण करते हैं, इसलिए अचेल कहलाते हैं । " विशेषावश्यकभाष्य के वृत्तिकार श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने भी सचेल के लिए 'अचेल' शब्द के व्यवहार का समर्थन किया है। यथा “सामान्यसाधवः सद्भिरेव चेलैरुपचारतोऽचेला भण्यन्ते, जिनास्तु तीर्थकरा असद्भिश्चे-लैर्मुख्यवृत्त्याऽचेला व्यपदिश्यन्ते । इदमुक्तं भवति - इहाचेलत्वं द्विविधं मुख्यमुपचरितं च । तत्रेदानीं मुख्यमचेलत्वं संयमोपकारि न भवति । अत औपचारिकं गृह्यते। मुख्यं तु जिनानामेवासीदिति ।" (हेम. वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५९८ ) । अनुवाद - " सामान्यसाधु सचेल होते हुए भी उपचार से ('अचेल' शब्द के गौण या उपचरित अर्थ की अपेक्षा) अचेल कहे जाते हैं, किन्तु तीर्थंकर अचेल होने मुख्यवृत्त्या ('अचेल' शब्द के मुख्यार्थ की अपेक्षा ) अचेल कहलाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि अचेलत्व दो प्रकार का है : मुख्य और उपचरित। इनमें से वर्तमान में मुख्य अचेलत्व संयम का साधक नहीं है, अतः वर्तमान में अचेल शब्द से औपचारिक अचेलत्व अर्थ ग्रहण किया जाता है। मुख्य अचेलत्व तो तीर्थंकरों के ही था । " यहाँ श्री जिनभद्रगणी, श्री संघदासगणी एवं श्री मलधारी हेमचन्द्र, तीनों ने अचेलक शब्द को तीर्थंकरों के प्रकरण में अचेलक (नग्न) का वाचक तथा सामान्य साधुओं के प्रसंग में सचेलक का वाचक बतलाया है। इसलिए उत्तराध्ययनसूत्र आदि में जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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