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१७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०२ जीर्ण और मैले-कुचैले वस्त्रधारण करनेवाले साधु को भी नग्न कहा जाता है।"(२६०१)२६
प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट अचेलकधर्म में 'अचेल' शब्द से अचेल और सचेल दोनों अर्थों के ग्राह्य होने का समर्थन श्री संघदासगणि-क्षमाश्रमण ने भी बृहत्कल्पसूत्र के लघुभाष्य में निम्नलिखित गाथाओं द्वारा किया है
आचेलक्कुदेसिय सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे।
बत जेट्ठ पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पे॥ ६३६४॥ इस गाथा में मुनियों के लिए 'आचेलक्य' आदि दस कल्प (आचार) आवश्यक बतलाकर 'आचेलक्य' शब्द से अचेलत्व के साथ सचेलत्व भी ग्राह्य है, इसका समर्थन करने के लिए श्री संघदासगणी कहते हैं
दुविहो होति अचेलो संताचेलो असंतचेलो य।
तित्थगर असंतचेला संताचेला भवे सेसा॥ ६३६५॥ अनुवाद-"अचेल दो प्रकार के होते है: सद्-अचेल (वस्त्र-सहित अचेल) तथा असद्-अचेल (वस्त्ररहित अचेल)। तीर्थंकर वस्त्ररहित अचेल हैं, शेष साधु वस्त्रसहित अचेल।"
और सचेल के लिए अचेल-शब्द के व्यवहार का समर्थन भी श्री संघदासगणी ने उन्हीं दो दृष्टान्तों (१. कटिवस्त्र को सिर पर लपेटकर नदी पार करनेवाले पुरुष एवं २. जुलाहे से शीघ्र साड़ी बुनकर देने के लिए कहनेवाली जीर्ण-साड़ीधारी स्त्री) से किया है, जिनसे श्री जिनभद्रगणी ने किया है। यथा
सीसावेढियपुत्तं णदिउत्तरणम्मि नग्गयं वेंति। जुण्णेहि णग्गिया मी तुर सालिय! देहि मे पोत्तिं॥ ६३६६ ॥ जुन्नेहिं खंडिएहि य असव्वतणुपाउतेहिं ण य णिच्चं।
संतेहिँ वि णिग्गंथा अचेलगा होंति चेलेहिं॥ ६३६७॥ 'अचेल' शब्द से 'अचेल' और 'सचेल' ये दो अर्थ अभिप्रेत बतलाकर श्री संघदासगणी एक शंका उठाकर उसका समाधान प्रस्तुत गाथा में करते हैं
२६. "जीर्णादिभिरपि वस्त्रैरचेलकत्वं लोकरूढमेवेति --- यथेह कापि योषित् कटीवेष्टितजीर्ण
बहुच्छिद्रेकसाटिका कञ्चित् कौलिकं वदति- त्वरस्व भोः शालिक! शीघ्रो भूत्वा मदीयपोत्ती शाटिकां निर्वाप्य ददस्व समर्पय, नग्निका वर्तेऽहम्। तदिह सवस्त्रायामपि योषिति नाग्न्यवाचकशब्दप्रवृत्तेः---।" हेमचन्द्रसूरिकृत-वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २६०१ ।
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