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अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १७५ को दिन कहने के समान यह घोषित कर दिया कि 'अचेल' शब्द का अर्थ 'अचेल' भी होता है और 'सचेल' भी। किसी को अचेल होने पर ही अचेल कहते हैं, किसी को सचेल होने पर भी 'अचेल' शब्द से पुकारते हैं। तीर्थंकर अचेल होने के कारण ही अचेल कहलाते हैं और सामान्य साधु सचेल होने पर भी अचेल कहलाते हैं। इसकी युक्तिसंगतता उन्होंने लोक में प्रयोजनविशेष से कभी-कभी प्रयुक्त होनेवाली उलटी भाषा (वक्रोक्ति या असंगतोक्ति) के दृष्टान्तों से सिद्ध करने की चेष्टा की है। श्री जिनभद्रगणी विशेषावश्यकभाष्य में लिखते हैं
सदसंतचेलगोऽचेलगो यजं लोगसमयसंसिद्धो। तेणाचेला मुणओ संतेहिं जिणा असंतेहिं॥ २५९८॥ परिसुद्ध जुण्ण कुच्छिअ थोवाऽनिययन्नभोगभोगेहिं। मुणओ मुच्छारहिया संतेहिं अचेलया होंति॥ २५९९॥ जह जलमवगाहंतो बहुचेलो वि सिरवेट्ठियकडिल्लो। भण्णइ नरो अचेलो तह मुणओ संतचेला वि॥ २६००॥ तह थोव-जुन्न-कुच्छियचेलेहि वि भन्नए अचेलो त्ति।
जह तूरत्तर सालिय! लहुं दो पोत्तिं नग्गिया मो त्ति॥ २६०१॥ अनुवाद-"यतः लोक और समय (आगम) में सचेल और अचेल दोनों के लिए 'अचेलक' शब्द प्रसिद्ध है,२५ अतः सामान्य साधु सचेल होने पर भी अचेल कहलाते हैं और तीर्थंकर अचेल होने के कारण ही अचेल शब्द से अभिहित होते हैं।" (२५९८)
"मूर्छारहित मुनि परिशुद्ध (एषणीय), जीर्ण (पुराने), कुत्सित (निस्सार= अनुपयोगी), स्तोक (अल्प) और अनियतभोग (कभी-कभी सेवन किये जाने वाले) वस्त्रों को धारण करने पर भी अचेलक कहलाते हैं।" (२५९९)।
__ "जैसे कोई पुरुष नदी पार करते समय भीग जाने के भय से कटिवस्त्र उतारकर सिर पर लपेट लेता है, तो उसके द्वारा वस्त्र का उपभोग किये जाने पर भी लोग उसे अचेल (नग्न) कहते हैं, वैसे ही मुनि वस्त्रधारण करते हुए भी अचेल कहलाते हैं।" (२६००)।
"तथा जैसे कोई बहुछिद्रयुक्त पुरानी साड़ी पहने हुई स्त्री जुलाहे के पास जाकर कहती है कि मुझे शीघ्र नई साड़ी बुनकर दो, मैं नंगी हूँ, वैसे ही अल्प, २५. "सति असति च चेलेऽचेलकत्वस्यागमे लोके च रूढकत्वात्---।" हेमचन्द्रसूरि-वृत्ति/
विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५९८ ।
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