SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०३/प्र०२ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १७३ परिग्रह की इस दिगम्बरमान्य परम्परागत परिभाषा का खण्डन श्वेताम्बराचार्य शय्यंभव द्वारा दशवैकालिकसूत्र की पूर्वोक्त गाथाओं में किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बरपरम्परा का अस्तित्व आचार्य शय्यंभव (४५२ ई० पू०) के पूर्व था। जिनकल्प का नाम देकर अचेलत्व के विच्छेद की घोषणा श्री जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने बोटिकमतोत्पत्तिकथा में शिवभूति के मुख से मोक्षार्थी के लिए जिस जिनकल्प के ग्राह्य होने का वर्णन कराया है, वह अक्षरशः दिगम्बर जैन मुनि के अचेललिंग का वर्णन है। उसे वह निष्परिग्रह एवं तीर्थंकरों द्वारा गृहीत अचेललिंग कहता है। वस्त्रपात्रादि-परिग्रह को वह कषाय, भय, मूर्छादि दोषों का कारण बतलाता है। इस प्रकार उसके समस्त तर्क एवं मान्यताएँ दिगम्बरजैनमतानुगामी हैं। इसका विस्तार से निरूपण द्वितीय अध्याय (प्र.२ / शी. ५) में किया गया है। यद्यपि गुरु आर्यकृष्ण द्वारा वर्णित जिनकल्प किसी न किसी रूप में सचेल है, तथापि शिवभूति जिस तीर्थंकरवत् या दिगम्बरजैन-मुनिवत् अचेललिंग को मोक्षार्थी के लिए ग्राह्य बतलाता है, उसे भी गुरु आर्यकृष्ण जिनकल्प कहकर जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद व्युच्छिन्न हुआ घोषित कर देते हैं। (देखिये, अध्याय २/प्र.३/शी. ३.५)। शिवभूति उसे ही धारण कर श्वेताम्बरसंघ से अलग हो जाता है तथा अपने शिष्यों को उसी अचेललिंग की दीक्षा देता है। इससे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बर जैनमत को जम्बूस्वामी के पूर्व से अर्थात् न केवल तीर्थंकर महावीर के काल से, अपितु तीर्थंकर ऋषभदेव के युग से प्रचलित स्वीकार किया गया है। (देखिये, अध्याय २/ प्र. २/ शी.१०.५)। केवल उसे जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद व्युच्छिन्न मान लिया गया है। व्युच्छिन्न मानना ही उसके पूर्वप्रचलित होने का प्रमाण है। सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर मुनि श्री नगराज जी डी० लिट० के निम्नलिखित वचनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है-"श्वेताम्बर-आगमों में जिनकल्प तथा स्थविरकल्प के रूप में नग्न और सवस्त्र, दोनों मुनि-आचार-विधियों का निरूपण है। फलतः इससे श्वेताम्बर-श्रमण-आचार के साथ-साथ दिगम्बर-श्रमण-आचार को भी पुष्टि मिलती है। दिगम्बर, जिन शास्त्रों को अप्रामाणिक कहें, उन्हीं शास्त्रों से दिगम्बर-आचार का समर्थन हो, यह श्वेताम्बरों को कब स्वीकार होता? यह असम्भाव्य नहीं जान पड़ता कि कहीं इसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप तो श्वेताम्बरों ने आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद घोषित न कर दिया हो, जिससे उसका शास्त्रीय समर्थन असामयिक एवं अनुपादेय बन जाये। अन्वेषक एवं समीक्षक विद्वान् जानते हैं कि धर्म-सम्प्रदाय के इतिहास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy