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द्वितीय प्रकरण
उत्तरवर्ती साहित्य में दिगम्बरीय सिद्धान्तों का खण्डन
श्वेताम्बराचार्यों ने अचेलकता के इतिहास को मिटाने का कौशलपूर्ण प्रयास किया है । वह कौशल है परिभाषाओं को बदलना, विपरीत व्याख्याएँ, तथा आधारहीन कल्पनाएँ करना। परिग्रह की परिभाषा बदली गई, 'अचेल' और 'नग्न' शब्दों की विपरीत व्याख्याएँ की गयीं, नाममात्र के अचेल, वस्तुतः सचेल - जिनकल्प और सचेल-स्थविरकल्प का भेद पैदा किया गया, पश्चात् जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा भी कर दी गयी, तीर्थंकरों के साथ सर्वसाधर्म्य का निषेध किया गया, अचेलत्व को संयम में बाधक करार दिया गया तथा 'वस्त्र ग्रहण किये बिना संयम और मोक्ष संभव नहीं' इस स्वकल्पित मत को जिनाज्ञा के रूप में प्रस्तुत किया गया। इससे यह फलित किया गया कि . भगवान् महावीर ने वास्तव में अचेलकधर्म का नहीं, सचेलधर्म का उपदेश दिया है। आइये, अचेलधर्म के स्थान में सचेलधर्म को जिनोपदिष्ट सिद्ध करने के उन कौशलपूर्ण तरीकों पर नजर डालें ।
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परिग्रह की परम्परागत परिभाषा का खण्डन
पूर्व (प्रकरण १ / शी. ८) में 'दशवैकालिक' की दो गाथाएँ (६ / १९-२० ) उद्धृत की गयी हैं, जिनमें कहा गया है - " साधु जो वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौञ्छन रखता है, वह परिग्रह नहीं है, अपितु उन वस्त्र - पात्रादि में मूर्च्छा (ममत्व) करना परिग्रह है ।" इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय यह मान्यता प्रचलित थी कि साधु का वस्त्रपात्रादि रखना परिग्रह है । परिग्रह की इस परिभाषा के अनुसार अपरिग्रही होने के लिए वस्त्रादि का सर्वथा त्याग आवश्यक है। यह परिभाषा उन साधुओं के प्रतिकूल थी, जिन्होंने वस्त्रपात्रादि रखना शुरू कर दिया था। अतः उन्होंने परिग्रह की परम्परागत परिभाषा को ही अप्रामाणिक घोषित कर दिया और कहना शुरू कर दिया कि भगवान् महावीर ने वस्त्रपात्रादि रखने को परिग्रह नहीं कहा है, बल्कि उनमें मूर्च्छा करने को परिग्रह कहा है। ऐसा ही उन्होंने शास्त्रों में भी लिख दिया। इस परिभाषा से उन्होंने परिग्रह रखते हुए भी अपने को अपरिग्रही सिद्ध कर लिया ।
परिग्रह की पूर्वप्रचलित परिभाषा के खण्डन से सिद्ध होता है कि उस परिभाषा को माननेवाली परम्परा पूर्व से चली आ रही थी, अन्यथा खण्डन का प्रश्न ही नहीं उठता था। यह खण्डन श्वेताम्बरमान्यतानुसार वीरनिर्वाण के लगभग ७५ वर्ष बाद १९ १९. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ५६२ ।
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