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१७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३ / प्र०१ भी भय हो सकता है। यदि उक्त तीन कारण न हों, तो साधु को नग्न ही रहना चाहिए। आचारांग के पूर्वोद्धृत वचनों में भी ऐसा ही कहा गया है। इस प्रकार श्वेताम्बरआगमों में भी दिगम्बरत्व का ही मुख्यतः विधान किया गया है। वस्त्रधारण की अनुमति तो कारणाश्रित होने से आपवादिक है। दिगम्बरसम्प्रदाय में भी विशेष परिस्थितियों में मुमुक्षुओं को वस्त्रधारण की अनुमति है, किन्तु वस्त्रधारण करनेवाले साधकों को मुनितुल्य नहीं माना गया है। उनका आध्यात्मिक स्तर मुनियों से हीन होता है। उन्हें अन्ततः वस्त्र त्यागकर मुनि बनना होता है, तभी वे मोक्ष की साधना के योग्य बनते हैं। सार यह है कि श्वेताम्बर-आगमों में साधुओं के लिए दिगम्बरचर्या का ही मुख्यतः विधान है। यद्यपि श्वेताम्बरपरम्परा में उसका आचरण कभी नहीं किया गया, इसके विपरीत उसे जिनकल्प नाम देकर व्युच्छिन्न घोषित कर दिया गया, तथापि आचारांग-स्थानांग आदि में उसे श्रेष्ठ और ह्री-जुगुप्सादि कारणों के अभाव में ग्राह्य बतलाया गया है, अतः दिगम्बरमार्ग की पूर्ववर्तिता सिद्ध होती है।
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