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________________ अ०३ / प्र०१ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १६९ देना चाहिए, क्योंकि वस्त्र परित्याग कर देने पर साधु को कायक्लेशरूप तप का लाभ होता है।१७ __ भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अपराजित सूरि लिखते हैं-"इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु। न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते।" (पृ.३२६)। अनुवाद-"परीषहसूत्रों में (उत्तराध्ययन में) जो शीत, दंशमशक, तृणस्पर्श आदि पीड़ाओं को सहन करने के वचन हैं, उनसे सिद्ध होता है कि साधु को अचेल (सर्वथा नग्न) रहने का ही उपदेश दिया गया है, क्योंकि सवस्त्र को शीतादि की पीड़ाएँ नहीं होतीं।" श्वेताम्बर-आगमों के ये वचन कि परीषहजय और कायक्लेश-तप पूर्ण नग्न अवस्था में ही संभव है, सिद्ध करते हैं कि मुनि के लिए मूलतः पूर्णनग्न रहने का ही उपदेश दिया गया है। इन वचनों से दिगम्बरत्व की पूर्ववर्तिता प्रमाणित होती है। १० दिगम्बरत्व उत्सर्गमार्ग, साम्बरत्व अपवादमार्ग स्थानांग में विधान किया गया है कि केवल तीन परिस्थितियों में वस्त्रधारण करना चाहिए। वे तीन परिस्थितियाँ हैं : ह्री-प्रत्यय (लज्जा का अनुभव), जुगुप्साप्रत्यय (लोकनिन्दा का भय) तथा परीषह-प्रत्यय (शीतादि की पीड़ा सहने में असमर्थता)"तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेजा। तं जहा हिरिवत्तियं, दुगुंछावत्तियं, परीसह-वत्तियं।" (स्था. सू./३/३/३४७/१५०) लज्जा की अनुभूति दो कारणों से हो सकती है : जननेन्द्रिय के कुरूप होने से तथा स्त्रियों को देखकर लिंगोत्थान हो जाने से।८ इन्हीं कारणों से लोकनिन्दा का १७. "तस्य वस्त्रपरित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात्।" वही। १८.क-"तत्र प्रजनने मेहने 'वेउव्वि त्ति' वैक्रिये विकृते तथा अप्रावृतेऽनावृते, वातिके चोत्सूनत्व भाजने, ह्रिया लज्जया सत्या, खड्डे बृहत्प्रमाणे 'लिंगुदयट्ठ त्ति' स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पट-श्चोलपट्टो मत इति।" हेम.वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५७५-७९/पृ. ५१६ । ख-"आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं, कारणापेक्षया भिक्षूणाम् ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति।" विजयोदयाटीका । भ. आ. / गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ. ३२४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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