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________________ १६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ / प्र० १ इस सूत्र में प्रयुक्त अल्प - बहु, सूक्ष्म-स्थूल और चेतन-अचेतन विशेषणों से स्पष्ट होता है कि यहाँ द्रव्यपरिग्रह ( बाह्यपरिग्रह) पर जोर दिया गया है, उसे महाभय का कारण बतलाया गया है, जिससे सूचित होता है कि वह मूर्च्छा का कारण होने से नरकादि के भयानक दुःखों का हेतु बनता है । १५ यह भी सूचित होता है कि अणुमात्र भी परिग्रह रखने पर साधु 'साधु' नहीं रहता, गृहस्थों की श्रेणी में चला जाता है। इस सूत्र में वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौंछन के परिग्रह को संयम और लज्जा का उपकरण कहकर परिग्रह की परिभाषा से मुक्त नहीं किया गया है, बल्कि सूत्र १८२ में सचेलत्व को अपध्यान का कारण बतलाकर परिग्रह की परिभाषा के भीतर कर दिया गया है। (देखिये, पा. टि. १३) । इस प्रकार आचारांग में परिग्रह की दिगम्बरमान्य परिभाषा की उपलब्धि दिगम्बरमत की पूर्ववर्तिता घोषित करती है। ९ परीषहजय एवं तप के लिए पूर्णनिर्वस्त्रता की अनुशंसा आचारांग में परीषहजय के लिए पूर्णनग्नता की अनुशंसा की गयी है। पूर्व में 'जे भिक्खू अचेले परिवुसिए' तथा 'अदुवा तत्थ पराक्कमंतं' इत्यादि सूत्र क्रमांक २२०-२२१ उद्धृत किये गये हैं, जिनमें कहा गया है कि यदि भिक्खु शीतादि परीषह तो सहन कर सकता हो, किन्तु गुह्यप्रदेश के निरावरण रहने से लज्जित होता हो, तो उसे केवल कटिवस्त्र धारण करना चाहिए । किन्तु यदि यह कारण न हो, तो उसे नग्न ही रहना चाहिए, क्योंकि नग्न रहने से तृणादि के चुभने, ठंड-गर्मी लगने, डाँसमच्छर आदि के काटने से जो पीड़ाएँ होती हैं, उन्हें वह भलीभाँति सहन करता है, जिससे उपकरणों और कर्मों के भार से मुक्त हो जाता है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि सवस्त्र अवस्था से निर्वस्त्र अवस्था अधिक लाभकारी है। निर्वस्त्र रहने पर भिक्खु जिस कर्मभार से मुक्त होता है, १६ उससे सवस्त्र रहने पर नहीं होता । पूर्व में आचारांग के 'अह पुण एवं जांणिज्जा' इत्यादि सूत्र २०९ - २१० भी उद्धृत किये गये हैं, जिनमें कहा गया है कि शीतादिपरीषह न सह पाने के कारण साधु जो वस्त्र धारण करता है, उन्हें शीतादि की बाधाएँ समाप्त हो जाने पर त्याग --- १५. “ एतदेव --- परिग्रहवत्त्वं - परिग्रहवतां नरकादिगमनहेतुत्वात् सर्वस्याविश्वासकारणाद्वा महाभयं भवति ।" शीलांकाचार्य-वृत्ति / आचारांग / १/५/२/१५० । १६. “शरीरोपकरणकर्म्मणि वा लाघवमागमयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यादिति । " शीलांकाचार्य-वृत्ति / आचारांग /१/७/३/२१० / पृ. २५१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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