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अ०३/प्र०१
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १६७
आचारांगानुसार द्रव्यपरिग्रह भी परिग्रह दिगम्बरजैन-परम्परा में वस्त्रादि द्रव्यपरिग्रह तथा मूर्छारूप भावपरिग्रह, दोनों को परिग्रह माना गया है और कहा गया है कि दोनों के त्याग से ही साधु अपरिग्रही होता है। किन्तु पश्चात्कालीन श्वेताम्बराचार्यों ने वस्त्रपात्रादि-द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह की परिभाषा से बाहर करने के लिए उन्हें धर्मोपकरणों की संज्ञा देकर कहा कि धर्मोपकरणों को रखना परिग्रह नहीं है, अपितु उनमें मूर्छा (ममत्व) करना परिग्रह है। इसलिए वस्त्रपात्रादि को रखते हुए भी उनमें मूर्छा न करने से साधु अपरिग्रही होता है। परिग्रह की यह नवीन परिभाषा दशवैकालिकसूत्र में इस प्रकार प्रतिपादित की गयी है
जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलजला धारंति परिहरंति अ ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो णायपुत्तेण ताइणा।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा॥ ६/२०॥ अनुवाद-"साधु जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौञ्छन (रजोहरण) धारण करता है और उनका उपभोग करता है, उसका प्रयोजन संयम और लज्जा का पालन है। संयमलज्जापालक वस्त्रपात्रादि के रखने को भगवान् महावीर ने परिग्रह नहीं कहा है, अपितु उनमें मूर्छा करने को परिग्रह कहा है।" ('परिहरन्ति च परिभुञ्जते च'। हारिभद्रीयवृत्ति)।
किन्तु आचारांग में कहा गया है कि थोड़ा भी परद्रव्य रखना परिग्रह है
"आवंति केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एएसु चेव परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महब्भयं भवइ, लोगवित्तं च णं उवेहाए, एए संगे अवियाणओ।" (आचारांग / १/५/२/१५०)।
अनुवाद-"लोक में जितने भी परिग्रहवाले मुनि हैं, उनका परिग्रह थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, चेतन हो या अचेतन, वे सब इन परिग्रहवाले गृहस्थों में ही अन्तर्भूत होते हैं। यह परिग्रह इनके लिए महाभय (का कारण) है। संसार की दशा जानकर इसे छोड़ो। जिसके पास यह परिग्रह नहीं होता, उसे महाभय नहीं होता।"
१४. "एतेन च परिग्रहेण परिग्रहवन्तः सन्तः एतेष्वेव परिग्रहवत्सु गृहस्थेष्वन्तर्वर्तिनो, व्रतिनोऽपि
स्युः।" शीलांकाचार्य-वृत्ति/आचारांग/१/५/२/१५० ।
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