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१६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३ / प्र०१ को वह कर्मभार से हल्का होने का कारण मानकर सहन करता है। इससे तप होता है।"१२
सचेल होने पर साधु को जो ऊपर कही गयीं विभिन्न चिन्ताएँ होती हैं, उन्हें आर्तध्यान या अपध्यान कहते हैं।१३ अचेल (सर्वथा नग्न) रहने पर वह आर्त्तध्यान नहीं होता तथा परीषहजय और तप सम्पन्न होते हैं। ये अचेलधर्म अर्थात् दिगम्बरलिंग के गुण हैं। आचारांग में इनका वर्णन कर दिगम्बरलिंग की प्रशंसा की गई है। इससे दिगम्बर-साधनापद्धति की पूर्ववर्तिता सिद्ध होती है।
स्थानांगसूत्र में भी पाँच कारणों से अचेलक धर्म की प्रशंसा की गई है। कहा गया है-"पंचहि ठाणेहि अचेलए पसत्थे भवइ। तं जहा अप्पपडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, अणुण्णाए, विउले इंदियनिग्गहे।" (स्था. सूत्र / ५/३ /३४७/ १५०) अर्थात् निम्नलिखित पाँच कारणों से अचेलक साधु प्रशस्त होता है
१. अचेलक की प्रतिलेखना अल्प होती है। २. अचेलक का लाघव प्रशस्त होता है। ३. अचेलकवेश विश्वास के योग्य होता है। ४. अचेलक का तप अनुज्ञात (जिन-अनुमत) होता है। ५. अचेलक के विपुल इन्द्रियनिग्रह होता है।
श्वेताम्बरागमों में अचेलकल्प की यह प्रशंसा इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बरपरम्परा श्वेताम्बरपरम्परा की उत्पत्ति के पूर्व से चली आ रही थी और वह प्रशस्त पद्धति है।
जस्टिस श्री एम० एल० जैन (२१५, मन्दाकिनी एन्क्लेव, अलकनंदा, दिल्ली-११००१९) ने भी 'श्वेताम्बर-आगम और दिगम्बरत्व' नामक अपने लेख में आचारांग के पूर्वोद्धत वचन एवं भगवतीसत्र (शतक १/उद्देशक ९/प्र.२०६-२०९ एवं २९६-३००/जिनागम प्रकाशन सभा मुम्बई / वि० सं० १८५४) के वचन उद्धृत कर यह सिद्ध किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में दिगम्बरत्व को भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट एवं श्रेष्ठ स्वीकार किया गया है। उनका यह लेख वीरसेवा मन्दिर के त्रैमासिक पत्र अनेकान्त (अप्रैल-जून १९९३) में तथा पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी की त्रैमासिक शोधपत्रिका श्रमण (अप्रैल-जून २००६) में प्रकाशित हुआ है।
१२. हिन्दी अनुवाद : मुनि श्री सौभाग्यमल जी महाराज। १३. "तस्याचेलस्य भिक्षो तद् भवति, यथा परिजीर्णं मे वस्त्र, छिद्रं पाटितं चेत्यमेवादि वस्त्रगत
मपध्यानं न भवति।" शीलांकाचार्य-वृत्ति / आचारांग /१/६/३/१८२ / पृ. २२१ ।
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