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१६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३ / प्र०१ हैं, उन्हें वह भलीभाँति सहन करता है। इस प्रकार अचेल मुनि उपकरणों और कर्मों के भार से मुक्त हो जाता है।।१०
यहाँ अचेल साधु को लज्जाविजय में असमर्थ होने पर एक चोलपट्टक (लँगोट) धारण करने की अनुमति दी गयी है और कहा गया है कि लज्जा को जीतने में समर्थ हो, तो अचेल ही विचरण करे, क्योंकि इससे परीषहजय का अवसर मिलता है, जो साधु को कर्मभार से मुक्त होने में सहायक होता है। इससे स्पष्ट है कि जब चोलपट्टक भी शरीर पर न हो, तब साधु अचेल कहलाता है। चोलपट्टक धारण कर लेने पर सचेल हो जाता है।
इस प्रकार आचारांग में सर्वथा वस्त्ररहित साधु को ही 'अचेल' कहा गया है, अल्पवस्त्रवाले को नहीं। एकमात्र चोलपट्टकवाले मुनि को भी सचेल ही कहा गया है।
दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना की विजयोदया टीका में आचार्य अपराजित सूरि ने श्वेताम्बर-आगम उत्तराध्ययनसूत्र की निम्नलिखित गाथाएँ उद्धृत की हैं, जो वर्तमान उत्तराध्ययन में उपलब्ध नहीं होतीं
परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए। अचेलपवरो भिक्खू जिणरूवधरे सदा ।। सचेलगो सुखी भवदि असुखो चावि अचेलगो।
अहं तु सचेलो होक्खामि इदि भिक्खू ण चिंतए॥११ अनुवाद-"साधु को वस्त्र त्याग कर पुनः ग्रहण नहीं करना चाहिए , अचेल रहकर सदा जिनरूपधारी रहना चाहिए। उसे यह विचार मन में नहीं लाना
१०.क-"किन्त्वहं ही लज्जा तया गुह्यप्रदेशस्य प्रच्छादनं ह्रीप्रच्छादनं, तच्चाहं त्यक्तुं न शक्नोमि।
एतच्च प्रकृतिलज्जालुकतया साधनविकृतरूपतया वा स्यात्। एवमेभिः कारणैः --- तस्य कल्पते युज्यते 'कटिबन्धनं' चोलपट्टकं कर्तुं, स च विस्तरेण चतुरङ्गलाधिको हस्तो दैर्येण कटिप्रमाण इति, गणनाप्रमाणेनैकः। पुनरेतानि कारणनि न स्युः ततोऽचेल एव पराक्रमेत। अचेलतया शीतादिस्पर्शं सम्यगधिसहेतेति। --- स एवं कारणसद्भावे सति वस्त्रं विभृयादथवा नैवासौ जिहेति ततोऽचेल एव पराकमेत।" शीलांकाचार्यवृत्ति ।
आचारांग / १/७/७/२२०-२२१।। ख-हिन्दी अनवाद : मनि श्री सौभाग्यमलजी महाराज/आचारांगसत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध/
पृ. ५५९। ११.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका / पृ.५२६ तथा जैन साहित्य
और इतिहास-प्रेमी/ प्र.सं./ पृ.५१ पर उद्धृत।
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