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________________ अ० ३ / प्र० १ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १६३ में रखे रहे ( सान्तरमुत्तरं ) । अथवा तीन वस्त्र हों तो एक का त्याग कर अवमचेल ( द्विवस्त्रधारी) हो जाय, अथवा शीत में और कमी हो रही हो, तो दूसरे वस्त्र को भी छोड़कर एकशाटक ( एकवस्त्रधारी, एकचेलक) बन जाय, अथवा शीत बिलकुल समाप्त हो गयी हो, तो उस एकशाटक का भी त्याग कर दे और अचेल हो जाय। इस तरह अचेल होकर वह अपने को भारमुक्त (लाघविक) कर लेता है और उससे तप की आराधना होती है। "८ यहाँ साधु के पास यदि तीनवस्त्र हों, तो उनमें से एक कम कर देने पर उसे अवमचेल कहा गया है, दो कम कर देने पर एकशाटक ( एकचेलक ) ९ तथा सर्वथा वस्त्ररहित हो जाने पर अचेल संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार " जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्य णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए सीयफासं अहियासित्तए तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चहं नो संचाएमि अहिआसित्तए, एवं से कप्पेड़ कडिबंधणं धारित्तए । अदुवा तत्थ पराक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसफा फुसन्ति एग-यरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिज्जाणिया ।" ( आचारांग / १/७/७/२२०-२२१) । अनुवाद – “जो साधु वस्त्ररहित होकर संयम के मार्ग में व्यवस्थित है, उसके मन में यदि ऐसा विचार आता है कि मैं तृणजनित वेदना सह सकता हूँ, शीत की वेदना सह सकता हूँ, उष्णता की वेदना सह सकता हूँ, डाँस-मच्छर की वेदना सहन कर सकता हूँ, और एक या अनेक अनुकूल-प्रतिकूल दुःखों को सहन कर सकता हूँ, परन्तु लज्जा के कारण गुह्य प्रदेश के आच्छादन का त्याग करने में समर्थ नहीं हूँ, तो उस साधु को कटिबन्धन (कटिवस्त्र = चोलपट्टक) धारण करना उचित है। (यदि उक्त कारण न हो, तो अचेल ही रहना चाहिए ) । जो अचेल विचरण करता है, उसे तृणस्पर्श - परीषह पीड़ित करता है, शीतपरीषह त्रास देता है, उष्णपरीषह सन्ताप देता है, डाँस-मच्छर पीड़ा पहुँचाते हैं और एक या अनेक अनुकूल-प्रतिकूल परीषह आते ८. 'अथवा --- वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत्, सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित् प्रावृणोति, क्वचित् पार्श्ववर्त्ति बिभर्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति । अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थः, अथवा शनै: शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृत्तः । अथवात्यन्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति । --- वस्त्रपरित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात् । " शीलांकाचार्यवृत्ति / आचारांग / १/७/४/२०९-२१० । ९. " अचेलोऽप्येकचेलकादिकं नावमन्यते ।" वही / १/६/३/१८२ | 44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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