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________________ १६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०१ मुनि शास्त्री का कथन है कि "भाष्यकार संघदासगणी, जिनभद्रगणी-क्षमाश्रमण से पहले हुए हैं या बाद में हुए हैं, यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता---।" (जै. आ. सा. म. मी./पृ. ४७३)। आचारांगादि में अचेल का अर्थ अल्पचेल नहीं बृहत्कल्प-लघुभाष्य एवं पञ्चाशक के अनुसार अजितादि बाईस तीर्थंकरों ने अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेश दिया था, इसलिए वस्त्रधारी साधुओं की सवस्त्रता का औचित्य उनके अनुसार तो सिद्ध हो जाता है, किन्तु भगवान् ऋषभदेव एवं महावीर ने केवल अचेलधर्म का उपदेश दिया था, इसलिए उनके अनुसार साधुओं के सचेलधर्म (स्थविरकल्प) के आचरण का औचित्य सिद्ध नहीं होता। अतः भगवान् महावीर के अनुसार भी सचेलधर्म (स्थविरकल्प) के आचरण का औचित्य सिद्ध करने के लिए परवर्ती ग्रन्थकारों एवं व्याख्याकारों ने अद्भुत रास्ता निकाला। उन्होंने 'अचेल' शब्द के निषेधार्थक 'अ' (नब्) को अल्पार्थक मानकर 'अचेल' का अर्थ अल्पचेल घोषित कर दिया। इस प्रकार सचेल को भी वे अचेल की परिभाषा में ले आये और भगवान् महावीर को सचेलधर्म का उपदेष्टा सिद्ध कर दिया। किन्तु आचारांगादि आगमों में अल्पचेल को 'अचेल' संज्ञा नहीं दी गयी है। यद्यपि आचारांग में शीतादि की बाधा सहने में असमर्थ साधकों के लिए अधिक से अधिक तीन वस्त्र धारण करने का विधान है, तथापि उनमें से तीन या दो वस्त्रधारियों की तो बात ही दूर, एकवस्त्रधारी को भी 'अचेल' शब्द से अभिहित नहीं किया गया है, सर्वथा वस्त्ररहित को ही अचेल कहा गया है। उदाहरणार्थ __ "अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाइं परिविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ।"७ अनुवाद-"जब मुनि यह जान ले कि हेमन्तऋतु चली गई है और ग्रीष्मऋतु आ गयी है, तब जो वस्त्र धारण किये थे उनका त्याग कर दे अथवा शीत की आशंका हो, तो त्याग न करे और जब आवश्यकता हो तभी उपयोग में लावे, अन्यथा पास ६. "अल्पार्थे नञ् यथाऽयं पुमानज्ञः स्वल्पज्ञान इत्यर्थः, यः साधुर्नास्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः, अल्पचेल इत्यर्थः। --- यदि वा जिनकल्पिकाभिप्रायेणैवैतत्सूत्रं व्याख्येयं, तद्यथा-'जे अचेले' इत्यादि, नास्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः।" शीलांकाचार्यवृत्ति / आचारांग/१/६/३/१८२। ७. आचारांग/१/७/४/२०९-२१०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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