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अ०३/प्र०१
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १६१ आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स।
मज्झिमगाण जिणाणं होति अचेलो सचेलो वा॥ इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् ऋषभदेव और महावीर इन दोनों तीर्थंकरों के अनुयायी मुनि दिगम्बर ही होते थे, अतः दिगम्बरपरम्परा भगवान् ऋषभदेव के युग से चली आ रही है।
प्रथम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुओं के लिए जो दश प्रकार का कल्प (आचार)५ निर्धारित किया गया है, वह कल्पनियुक्ति में इस प्रकार है
आचेलक्कुइसिय सिज्जायर-रायपिंड-किइकम्मे।
वय-जेट्ठ-पडिक्कमणे मासं पज्जोवसवणकप्पो॥ अनुवाद-"१.आचेलक्य (नग्नत्व), २. उद्दिष्ट आहार का त्याग, ३. वसतिदाता के आहार का त्याग ४.राजपिण्ड (राजस आहार या राजा के घर के आहार) का त्याग, ५.कृतिकर्म, ६.महाव्रत, ७. पुरुष की ज्येष्ठता (साध्वी की वन्दना न करना) ८.प्रतिक्रमण, ९.एक स्थान पर अधिक से अधिक एक मास तक रहना और १०. वर्षाकाल में चार मास तक एक ही स्थान में रहना।"
साधुओं के इन दस प्रकार के आचारों में आचेलक्य सबसे पहला आचार बतलाया गया है, और यद्यपि अपरिग्रह महाव्रत में आचेलक्य आ जाता है, तथापि अलग से उल्लेख कर इसके महत्त्व का बोध कराया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधुओं के लिए दिगम्बरत्व का विधान भगवान् ऋषभदेव के समय से ही चला आ रहा है।
साधुओं के दस कल्पों (आचारों) का प्ररूपण करनेवाली उपर्युक्त 'आचेलक्कुद्देसिय' इत्यादि गाथा प्रथम शताब्दी ई० के दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना में उपलब्ध होती है। श्वेताम्बरपरम्परा में भी यह गाथा तीर्थंकर महावीर की अनुगामिनी मूल (अविभक्त) निर्ग्रन्थपरम्परा से ही आयी है, किन्तु श्वेताम्बरसाहित्य में इसका सर्वप्रथम उल्लेख छठी शताब्दी ई० की कल्पनियुक्ति में हुआ है। वहीं से यह छठी-सातवीं शती ई० के भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमणकृत जीतकल्पभाष्य में (गा.१९७२) तथा इसी समय के एक अन्य प्रमुख भाष्यकार श्री संघदासगणि-क्षमाश्रमण द्वारा रचित बृहत्कल्पलघुभाष्य (गा.६३६४) में आत्मसात् की गयी है। भाष्यों का रचनाकाल छठी-सातवीं शताब्दी ई० माना गया है। डॉ० मोहनलाल जी मेहता लिखते हैं कि श्री संघदासगणी श्री जिनभद्रगणी से पूर्ववर्ती हैं। (जै.सा.बृ.इ./ भा. ३/ पृ. १४, १९)। किन्तु , श्री देवेन्द्र
५. 'कल्पः साधूनामाचारः।' कल्पकौमुदीटीका / कल्पसूत्र / पृ.२ ।
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