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________________ १६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ / प्र० १ सिंह है' ऐसा कथन कर बालक में जो सिंहत्व वास्तव में नहीं है उसे बालक में बतलाना उपचार है। यहाँ 'अचेल' शब्द के उपचार से भी प्रयुक्त होने की जो कल्पना की गयी है उसकी अयुक्तिमत्ता का निरूपण आगे किया जायेगा । यहाँ केवल इस बात पर ध्यान देना है कि श्वेताम्बरीय साहित्य में सभी तीर्थंकरों को अन्ततः सर्वथा नग्न अर्थात् दिगम्बर स्वीकार किया गया है, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि दिगम्बरधर्म स्वयं तीर्थंकरों द्वारा आचरित था, इसलिए वह मौलिक धर्म है। ५ आदि - अन्तिम तीर्थंकरों द्वारा अचेलकधर्म का उपदेश उत्तराध्ययनसूत्र के केशी - गौतम संवाद में बतलाया गया है कि भगवान् महावीर ने अचेलक (दिगम्बर) धर्म का उपदेश दिया था और भगवान् पार्श्वनाथ ने सचेलधर्म का अचेलगो य जो धम्मो जो इमो देसिदो वद्ध माणेण पासेण य Jain Education International संतरुत्तरो । महाजसा ॥ २३ / २९ ॥ चूँकि इस गाथा में भगवान् महावीर को अचेलकधर्म का उपदेशक कहा गया है, इससे श्री जिनभद्रगणी का यह कथन असत्य सिद्ध हो जाता है कि सभी तीर्थंकरों ने सवस्त्र तीर्थ का उपदेश दिया था और इसी के लिए वे एक वस्त्र लेकर प्रव्रजित हु वस्तुतः श्वेताम्बरपरम्परा में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर महावीर इन दो को अचेलकधर्म का उपदेष्टा और मध्य के बाईस तीर्थंकरों को अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेशक माना गया है । यद्यपि उत्तराध्ययन- सूत्र में प्रसंग न होने के कारण अचेलकधर्म के उपदेशक के रूप में ऋषभदेव का उल्लेख नहीं किया गया तथापि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के अचेलकधर्म-प्रणेता होने की श्वेताम्बरीय मान्यता उत्तराध्ययनसूत्र के रचनाकाल से पूर्ववर्ती है। उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर को अचेलकधर्म का तथा पार्श्वनाथ को अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेष्टा बतलाया जाना इसी परम्परागत श्वेताम्बरीय मान्यता पर आधारित है। इसी के आधार पर भाष्यकार श्री संघदासगणि-क्षमाश्रमण ( ६ - ७वीं शती ई०) ने बृहत्कल्प - लघुभाष्य में निम्नलिखित गाथा (६३६९) रचकर तथा श्री हरिभद्रसूरि (८वीं शती ई०) ने पञ्चाशक (गा. १२) में इसे आत्मसात् कर पुरिम (प्रथम) और पच्छिम (अन्तिम) तीर्थंकरों को अचेलकधर्म का उपदेशक तथा मध्य के बाईस तीर्थंकरों को अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेष्टा बतलाया है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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