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________________ १५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०१ यदि उन्हें पता था कि वह नष्ट हो जायेगा तो फिर उसका ग्रहण करना निरर्थक हुआ और यदि पता नहीं था, तो वे अज्ञानी सिद्ध हुए। और फिर यदि उन्हें चेलप्रज्ञापना वांछनीय थी, तो फिर यह वचन मिथ्या हो जायेगा कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म आचेलक्य (निर्वस्त्रता) था। "और जो यह कहा गया है कि जिस तरह मैं अचेलक हूँ, उसी तरह पिछले जिन (तीर्थंकर) भी अचेलक होंगे, सो इससे भी विरोध आयेगा। इसके सिवाय वीर भगवान् के समान यदि अन्य तीर्थंकरों ने भी वस्त्र ग्रहण किया था, तो उनका वस्त्रत्यागकाल क्यों नहीं बतलाया गया है? इसलिए यही कहना उचित मालूम होता है कि सब कुछ त्याग कर जब जिन (वीर भगवान्) स्थित थे तब किसी ने उनके ऊपर वस्त्र डाल दिया था और वह एक तरह का उपसर्ग था।"३ २.क-"यच्च भावनायामुक्तं-'वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो जिणो' त्ति तदयुक्तं विप्रतिपत्ति बहुलत्वात्। कथम्? केचिद्वदन्ति 'तस्मिन्नेव दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति'। अन्ये 'षण्मासाच्छिन्नं तत्कण्टकशाखादिभिरिति' । 'साधिकेन वर्षेण तद् वस्त्रं खण्डलकब्राह्मणेन गृहीतमिति' केचित् कथयन्ति। केचिद् वातेन पतितमुपेक्षितं जिनेनेति। अपरे वदन्ति 'विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति'। एवं विप्रतिपत्तिबाहुल्यान्न दृश्यते तत्त्वम्। सचेललिङ्गप्रकटनार्थं यदि चेलग्रहणं जिनस्य, कथं तद्विनाश इष्टः? सदा तद् धारयितव्यम्। किं च यदि नश्यतीति ज्ञातं, निरर्थकं तस्य ग्रहणम् यदि न ज्ञातमज्ञानमस्य प्राप्नोति। अपि च चेलप्रज्ञापना वाञ्छिता चेत् "आचेलक्को धम्मो पुरिमचरिमाणं" इति वचो मिथ्या भवेत्।" विजयोदयाटीका / भ.आ./ गा.' आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ. ३२५-२६ । हिन्दी अनुवाद : पं० नाथूराम जी प्रेमी/ जैनसाहित्य और इतिहास / प्र.सं./पृ. ४९-५०। ख-उपर्युक्त विजयोदयाटीका की प्रथम पंक्ति में तदुक्तं मुद्रित, है, जो अशुद्ध है। टीकाकार के अभिप्रायानुसार तदयुक्तं (तद् अयुक्तं = वह कथन अनुचित है) होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन के इस वचन को अयुक्त बतलाया है कि 'भगवान् महावीर ने एक वर्ष तक चीवर धारण किया, पश्चात् अचेलक हो गये' और अयुक्त होने का कारण यह बतलाया है कि इस विषय में विप्रतिपत्ति की बहुलता (लोगों के मतों में भिन्नता) है। इसीलिए उन्होंने मतवैभिन्न्य का उल्लेख करने के बाद अपना युक्तिसंगत निर्णय देते हुए लिखा है कि "एवं तु युक्तं वक्तुं-सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनचिदंसे वस्त्रं निक्षिप्तम् , उपसर्गः स इति।" अर्थात् यह कहना युक्त है कि भगवान् जब वस्त्रादिसकल परिग्रह का त्याग करके स्थित थे, तब किसी ने उनके कन्धे पर वस्त्र डाल दिया, जो एक उपसर्ग था। (भ.आ. / गा.४२३/ पृ. ३२६)। ३. "यदुक्तं 'यथाहमचेली तथा होउ पच्छिमो इदि होक्खदित्ति' तेनापि विरोधः। किं च जिनानामितरेषां वस्त्रत्यागकालः वीरजिनस्येव किं न निर्दिश्यते, यदि वस्त्रं तेषामपि भवेत्। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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