SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ / प्र० १ होने की बात स्वीकार की । इससे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बराचार्यों को अचेलकपरम्परा अर्थात् दिगम्बरपरम्परा (जो पहले निर्ग्रन्थसंघ के नाम से प्रसिद्ध थी) की मौलिकता एवं प्राचीनता का बोध था। वे उसका अपलाप नहीं करना चाहते थे । आगे चलकर उन्होंने जैसे अचेलकधर्म (जिनकल्प) का विच्छेद घोषित कर प्रवर्तमान दिगम्बरजैनपरम्परा को तीर्थंकर - अप्रणीत, निह्नवमत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, वैसे ही अचेलक शब्द को सचेल का वाचक सिद्ध करने का प्रयास करके भी अचेलपरम्परा का अभाव साबित करने की चेष्टा की है। इन दोनों सकारात्मक और नकारात्मक प्रवृत्तियों का आश्रय बनाकर मान्य श्वेताम्बराचार्यों ने स्वयं ही इस अचेलकपरम्परा अर्थात् दिगम्बरजैनपरम्परा की मौलिकता एवं पूर्ववर्तिता का परिचय दे दिया है। २ सभी तीर्थंकरों के दिगम्बरमुद्रा से मोक्ष होने का कथन आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि चौबीसों तीर्थंकर एकवस्त्र में ही प्रव्रजित हुए थे, न तो अन्यलिंग से प्रव्रजित हुए, न गृहस्थलिंग से, न कुलिंग से - सव्वेऽवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चडव्वीसं । न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा ॥ २२७ ॥ श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण लिखते हैं- " सभी जिन वज्रवृषभनाराचसंहनन के धारी होते हैं, चार ज्ञान और अतिशयसत्त्व से सम्पन्न होते हैं, उनके हस्तपुट छिद्ररहित होते हैं, वे परीषहों के विजेता होते हैं, अतः वस्त्रपात्रादि उपकरणों से रहित होने पर भी उनके अभाव में जो दोष बतलाये गये हैं, वे उन्हें नहीं लगते। उनके लिए वस्त्रपात्र संयम के साधन नहीं हैं, इसलिए वे उन्हें ग्रहण नहीं करते । तथापि तीर्थ (मोक्षमार्ग ) सवस्त्र ही है, तीर्थ में चिरकाल तक साधु सवस्त्र ही होंगे, यह उपदेश देने के लिए सभी तीर्थंकर एक वस्त्र लेकर अभिनिष्क्रमण करते हैं और उस वस्त्र के कहीं गिर जाने पर निर्वस्त्र हो जाते हैं, सदा निर्वस्त्र नहीं रहते । "१ १. निरुपमधिइसंघयणा चउनाणाइसयसत्तसंपण्णा । अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरिसहा सव्वे ॥ २५८१ ॥ विशेषावश्यकभाष्य । तम्हा जहुत्तदोसे पावंति न वत्थ - पत्तरहिया वि। तदसाहणं ति तेसिं तो तग्गहणं न कुव्वंति ॥ २५८२ ॥ तहवि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थं ति । अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुंति ॥ २५८३ ॥ विशेषाबश्यकभाष्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy